Friday, May 6, 2016

काव्य की आत्मा और रागात्मकता +रमेशराज




काव्य की आत्मा और रागात्मकता

+रमेशराज
-------------------------------------------------------------

काव्य के संदर्भ में जब-जब काव्य की आत्मा को पहचानने की कोशिश की गयी है, तो रसाचार्यों ने भाव के आधार पर रस को, अलंकार वादियों ने अलंकार, ध्वनिवादियों ने ध्वनि, औचित्यवादियों ने औचित्य को काव्य की आत्मा सिद्ध  करने का अथक प्रयास किया है। काव्य के विभिन्न सम्प्रदायों के तहत काव्य की आत्मा को भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से परखने का परिणाम यह है कि आज तक रस,    अलंकार, ध्वनि, औचित्य आदि में से किसी को भी काव्य की आत्मा स्वीकारे जाने की स्थिति न बन सकी। ऐसा काव्य को कोरे अवैज्ञानिक एवं भावात्मक तरीकों से परखने के कारण हुआ। अच्छा यह होता कि काव्य की आत्मा के संदर्भ में, किसी भी प्रकार का निर्णय लेने से पूर्व, मानव की आत्मा को तय कर लिया जाता, तत्पश्चात् काव्य की आत्मा के संदर्भ में खोज प्रारम्भ की जाती, क्योंकि काव्य का सृजन मानव समाज द्वारा अन्नतः मानव समाज के लिये ही किया जाता है, अतः मानव की आत्मा का, काव्य की आत्मा से कोई सम्बन्ध न हो, ऐसा असम्भव है।
आत्मा के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए आचार्य ध्रुव  कहते हैं कि-‘‘ यदि काव्य अनुकरण है तो वह वाह्य सृष्टि का अनुकरण नहीं, बल्कि सृष्टि के आत्मतत्त्व का अनुकरण है और सृष्टि के आत्मतत्त्व का अर्थ है-मनुष्य के जीवन के चरित्र लक्षण, भाव और कर्म।’’
काव्य की आत्मा के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिये आचार्य ध्रुव जिन तत्त्वों की ओर संकेत करते हैं, वे तत्त्व मनुष्य की उस चेतना से सम्बन्ध रखते हैं, जिसके माध्यम से उसका भावात्मक, चारित्रिक कर्मक्षेत्र स्पष्ट होता है। अतः यह स्पष्ट है कि मनुष्य के कर्मक्षेत्र की सृष्टि, मनुष्य की वह मानसिक सृष्टि है, जिसके माध्यम से वह एक सामाजिक प्राणी का स्वरूप ग्रहण करता है। मनुष्य की यही समाजोन्मुखी मानसिक सृष्टि, निस्संदेह मनुष्य की आत्मा के स्वरूप को समझने में सहायक हो सकती है।
डॉ. नगेन्द्र के अनुसार-‘‘आत्मा का अर्थ है आधार तत्त्व तथा प्रयोजन का अर्थ है उद्देश्य। और ये ही दो तत्त्व किसी प्राणी या वस्तु के मानदंड या मूल्य का निर्धरण करते हैं।’’
 प्रश्न यह है कि आत्मा के आधार तत्त्व क्या हैं? इसका उत्तर डॉ. नगेन्द्र से तो नहीं, संस्कृत आचार्य इस प्रकार देते हैं-
‘रसस्यादि त्वमापतस्य धर्मा शौर्यादयोयथा।’’
अर्थात् प्राणी के शरीर में सारभूत आत्मतत्त्व के रूप में धर्म , शौर्य औदार्य आदि होते हैं। उक्त पंक्तियों का सीधा अर्थ यह है कि मनुष्य की आत्मा की निर्मित्ति मनुष्य के ज्ञानस्वरूप की वह अवस्था है या संरचना है जिसके आधार पर वह धर्म, शौर्य, औदार्य आदि के रूप में अपनी चेतनता, अपने विवेक अर्थात् अपने व्यवहार का परिचय देता है।
आचार्य शंकर ने कठोपनिषद् के भाष्य में एक प्राचीन श्लोक का उदाहरण देते हुए आत्मा की व्युत्पत्ति इस प्रकार मानी है-
‘‘यदाप्नोति यदादत्ते यच्चायत्ति विषययित
यच्चास्य सन्ततो भावस्त स्माद् आत्मेति कीर्त्यते।
अर्थात् आत्मा प्राणी के शरीर का वह चेतनतत्त्व है जो
1. विषयों को प्राप्त करता है
2. उन्हें ग्रहण करता है
3. इनका उपभोग करता है तथा यह सत् है।[1]
आत्मा के उक्त़ विवेचन के उपरांत जो तथ्य उभरकर सामने आते हैं, वे इस प्रकार हैं-
1. आत्मा मनुष्य की वह चेतना है, जिसके अन्तर्गत वह अपने ज्ञान का विकास एवं उपयोग करता है।
2. मनुष्य की आत्मा की इस प्रकार चेतनता उसकी ऐन्द्रिक एवं मानसिक प्रक्रिया द्वारा निर्मित या संरचित होती है।
3. आत्मा का सीधा-सीधा सम्बन्ध मनुष्य के चरित्र एवं उसके कर्मक्षेत्र से होता है।
उक्त निष्कर्षों के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि आत्मा मनुष्य की वह चेतनता है, जिसके द्वारा वह जगत अर्थात् अपने परिवेश से संवेदना ग्रहण करता है एवं परिवेश के विभिन्न उद्दीपकों को विभिन्न प्रकार के अर्थ प्रदान कर, उनके प्रति अपना एक विशिष्ट प्रकार का व्यवहार निर्धारित करता है। और यही कारण है कि क्रोचे आत्मा की क्रियात्मक प्रणाली को मुख्यतः दो प्रकार की मानते हैं-
क. व्यवहारात्मक  ख. विचारात्मक
 प्रश्न यह है कि आत्मा की उक्त प्रकार की क्रियाएं क्यों और कैसे सम्पन्न होती हैं। इसका उत्तर देते हुए प्रो. जोसफ मुण्डश्शेरी लिखते हैं कि- ‘‘मानव की आत्माभिव्यक्ति अधिकांशतः प्रयोजन-सापेक्ष होती है | [2]
यह प्रयोजन क्या है और इसकी सापेक्षता किसके प्रति है? इसका हल सही अर्थों में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ही दे पाते हैं। वे ‘रसात्मक बोध के विविध स्थल’ नामक निबन्ध में कहते हैं कि-‘‘ ज्ञान हमारी आत्मा के तटस्थ स्वरूप का संकेत है। किसी वस्तु या व्यक्ति का जानना ही वह शक्ति नहीं है, जो उस वस्तु या व्यक्ति को हमारी अन्तस्सत्ता में सम्मिलित कर दे, वह शक्ति है-राग या प्रेम | [ 3 ]
आचार्य शुक्ल ने आत्मा के सूक्ष्म और सनातन स्वरूप की पकड़ करते हुए जिन तथ्यों की ओर संकेत किया है, वह तथ्य निस्संदेह आत्मा के स्वरूप को समझने में बहुत कुछ सहायक हो सकते हैं। आचार्य शुक्ल के उक्त तथ्यों को दृष्टिगत रखते हुए, यदि आत्मा के वास्तविक स्वरूप को समझने की कोशिश की जाये तो आत्मा का स्वरूप मात्र चेतनात्मक, ज्ञानात्मक, व्यावहारिक या वैचारिक ही नहीं ठहरता, उसमें राग या प्रेम की सत्ता भी सम्मिलित हो जाती है। और यही राग या प्रेम की सत्ता, आत्मा के प्रति उन सारे गूढ़ प्रश्नों का उत्तर दे देती है, जिन्हें आचार्य ध्रुव, ‘आत्मतत्त्व के अनुकरण’, डॉ. नगेन्द्र ‘आधारतत्त्व एवं प्रयोजन, आचार्य शंकर ‘चेतनतत्त्व, क्रोचे विचारात्मक एवं व्यावहारात्मक क्रिया तथा प्रो. जोसफ ‘प्रयोजन सापेक्षता’ के रूप में उठाते हैं।
बहरहाल इस बात से कोई भी सुधी या विद्वान चिंतक या आत्म-मर्मज्ञ इन्कार नहीं कर सकता कि प्राणी या मानव की समूची चेतन क्रिया राग या प्रेम की वासना से सिक्त रहती है। राग या प्रेम ही हमारे ज्ञान, व्यवहार या वैचारिक मूलयवत्ता का वह मूल आधार है, जिसके बिना मानव चेतनाहीन, संज्ञाशून्य हो जाता है। काव्य के संदर्भ में तो यह तथ्य सौ फीसदी सच है कि काव्याभिव्यक्ति बिना प्रेम या राग के किसी भी प्रकार सम्भव नहीं। काव्य का मूल प्राण राग या प्रेम ही है। तब, क्या मानव या काव्य की आत्मा राग या प्रेम है? यदि राग या प्रेम को काव्य की आत्मा मान लिया जाये तो सवाल यह पैदा होता हे कि इस राग या प्रेम को उत्पन्न करने वाला कौन-सा तत्त्व है? हम यकायक ही किसी से प्रेम नहीं कर बैठते? यकायक ही किसी को अपना मित्र नहीं बना लेते। इसके लिये हमें विभिन्न प्रकार की वैचारिक प्रक्रियाओं से होकर गुज़रना पड़ता है। जो वस्तुएं हमें सुरक्षा [ शारीरिक एवं मानसिक ] प्रदान करती हैं, उनके प्रति हमारा लगाव बढ़ता जाता है, जिसे राग कहा जाता है। राग उत्पन्न करता है रमणीयता को। और जिन वस्तुओं के प्रति रमणीयता बढ़ती है, उनसे हम प्रेम करने लगते हैं। इससे निष्कर्ष यह निकलता है कि प्रेम के मूल में भी राग की धारा ही बहती है। अतः यह कहना अनुचित न होगा कि राग ही वह मूल प्राणतत्त्व है, जो आत्मा के स्वरूप को तटस्थ रखने के बजाय उसे प्रेममय बनाता है। चूंकि राग को उत्पन्न करने वाली मूल शक्ति हमारी चेतना या चेतना प्रक्रिया होती है, अतः काव्य की आत्मामात्र न तो राग हो सकती है और न केवल चेतनता। बल्कि इस विषय पर यदि सूक्ष्मता से चिन्तन किया जाये तो काव्य की आत्मा वह रागात्मक चेतना ठहरती है, जसके दर्शन हमें लौकिक या कथित अलौकिक जगत की चर-अचर वस्तुओं के प्रति तटस्थता नहीं, बल्कि एक विशेष प्रकार की वासना या प्रेम के साथ परोक्ष या अपरोक्ष रूप से होते आये हैं और जब तक यह जगत अस्तित्व में है, होते रहेंगे।
काव्य की आत्मा ‘रागात्मक चेतना’ मानकर चलने पर यदि हम पुनः इस लेख में उल्लेखित विद्वानों के मतों का अवालोकन करें तो आचार्य ध्रुव जब आत्मतत्व का अर्थ मनुष्य के जीवन के चरित्र, लक्षण, भाव और कर्म बतलाते हैं तो इन सब तत्त्वों के मूल में भी हमें वही रागात्मक चेतना अन्तर्निहित मिलती है, जिसके अभाव में यह सारे तत्त्व बेमानी हो जाते हैं, प्राणी के शरीर के सारभूत तत्त्व धर्म , शौर्य, औदार्य आदि का कोई औचित्य नहीं दिखलायी पड़ता। क्रोचे की व्यवहारात्मक एवं विचारात्मक क्रियाएं निष्प्राण और कोरा ज्ञान संकेत बन जाती हैं। और यही कारण है कि आचार्य शंकर आत्मा की पहचान में जिस तत्त्व की ओर विशेष ध्यान देते हुए, आत्मा के स्वरूप की पहचान कराते हैं, वह स्वरूप ‘सत’ है। आचार्य शंकर आत्मा के इस सत् स्वरूप पर अनायास ही जोर नहीं देते। यह सत् तत्त्व ही ऐसा तत्त्व है जो रागात्मकता को समूचे लोक की मंगलकामना या लोकसापेक्षता की चेतना से लैस करता है। बाल्मीकि द्वारा रचित आदि काव्य ‘रामायण’ का भी मूल आधार वही लोकमंगल की कामना है जो राम के चरित्र, लक्षण, भाव, कर्म, धर्म, शौर्य, औदार्य आदि समस्त प्रकार की व्यवहारात्मक एवं वैचारिक क्रियाएं के माध्यम से दर्शायी गयी हैं। लोकमंगल की यह अभिव्यक्ति कितनी सत् है, इस विषय पर मतमतान्तर हो सकते हैं और यह एक इतर विषय है। लेकिन बाल्मीकि, तुलसी से लेकर वर्तमान काव्य में यह सत् तत्त्व अपने-अपने तरीके से, संस्कारों, वैचारिकता के आधार पर विभिन्न रूपों में विद्यमान है, इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता।
यहां प्रश्न यह किया जा सकता है कि यदि काव्य की आत्मा ‘रागात्मक चेतना’ है तो उसमें सत् तत्त्व कहां से टपक पड़ा? उत्तर यह है कि यदि हम काव्य का अर्थ मात्र रसात्मक वाक्यों, ध्वनियों, अलंकारों आदि से ही लेते हैं तो भी रस, ध्वनि, अलंकार, औचित्य आदि के मूल में रागात्मकता का आलोक तो सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है, लेकिन यह रागात्मकता सत् के अभाव में आत्मा की लोकसापेक्ष, मंगलकारी और सनातन प्रतीति नहीं बन सकती।
अतः हमें काव्य को लोकमंगल के साथ जोड़कर परखने या देखने के लिये इतना तो संशोधन करना ही पड़ेगा कि काव्य की आत्मा मात्र रागात्मक चेतना नहीं, बल्कि ‘सत्योन्मुखी रागात्मक के चेतना’ है। और सत्योन्मुखी रागात्मक चेतना’ के इस बिन्दु पर आकर हमें  आत्मा के उस सात्विक स्वरूप की पहचान हो जाती है जो सामाजिक या लौकिक सम्बन्धों की सार्थकता को कोरे लोकरंजन, भोगविलास, व्यक्तिवाद के बजाय लोकरक्षा या लोकहित के साथ सम्बद्ध करता है।
1. शब्द-शक्ति और ध्वनिसिद्धांत पृष्ठ-११४, डॉ. सत्यदेव चौधरी
2.भा.का.सि., अभिव्यंजना और वक्रोक्तिवाद, पृष्ठ-२१३  
3.वही
4.भारतीय काव्य सिद्धांत पृष्ठ-252       
--------------------------------------------------------------
रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001

मो.-9634551630

Sunday, May 1, 2016

आत्मीयकरण-1 +रमेशराज



               Rameshraj
               ---------------- 


त्मीयकरण-1

+रमेशराज
------------------------------------------------------------------

आचार्य प्राग्भरत बतलाते हैं कि ‘‘जब कोई हृदय संवादी अर्थ हमारी चेतना को व्याप्त कर लेता है तभी रस का जन्म होता है।[1]
रस को रस ही क्यों कहते हैं, इसका उत्तर देते हुए आचार्य भरतमुनि कहते हैं- ‘‘रस आस्वाद्य है और अपनी आस्वाद्यता के कारण ही यह ‘रस’ कहलाता है।[2]
आचार्य भरत आचार्य भरतमुनि का मानना है कि ‘‘रस से रीतकर कोई अर्थ प्रवर्तित नहीं होता।’’[3]
रस का बीज रूप कहां स्थिति होता है, इसके बारे में भरतमुनि का मत है कि जैसे बीज से वृक्ष होता है, वृक्ष से पुष्प और पुष्प से फल, वैसे ही रस सबके मूल में होते हैं और उन्हीं से सारे भाव व्यवस्था पाते हैं।[4]
रस सबके मूल में किस प्रकार विद्यमान होता है?, डॉ. ऋषिकुमार चतुर्वेदी रस के बीज रूप को इस प्रकार स्पष्ट करते हैं कि-‘‘ रस कवि हृदय की मूल आद्रता या रागात्मकता से जन्म लेता है [5] जिसे भरतमुनि ने ‘काम’ और  आनंदवर्धन  ने  शृंगार कहा है। यह बीज स्थानीय रस सहृदय गत आद्रता के रूप में भी माना जा सकता है, जिसकी उपस्थिति के कारण ही उसकी सहृदय संज्ञा होती है और जिसके कारण काव्यस्वाद प्राप्त करने में समर्थ होता है। रस का यह रूप अभिनवगुप्त की ‘अनादि वासना’ के अधिक निकट है।’’[6]
रस के बारे में दिये गये उक्त तथ्यों के आधारर निम्न बातें उभर कर सामने आती हैं-
1.काव्य से समबन्धित कोई भी अर्थ जब हृदय अर्थात् हमारी संवेदना तक संवाद की स्थिति में पहुंचता है तो वह हमारी पूरी संवेदना में व्याप्त या आच्छादित हो जाता है, उसी अर्थ से रस का जन्म होता है। अर्थ यह कि हमारे निर्णय ही हमें रसोद्बोधन तक ले जाते हैं। काव्य सामग्री के आस्वादन के समय बुद्धि या ज्ञानतन्तु गतिशील होते हैं  और बुद्धि की यही गतिशीलता हमें रस की ओर ले जाती है। इस प्रकार बुद्धि से रस प्राप्त होता है।
2.रस का जन्म रागात्मकता या हृदय की आद्रता होता है। अर्थ यह कवि और सहृदय दोनों की ही बुद्धि रागात्मकता से आद्र होती है, इसी कारण उसमें रसात्मकता का उदय होता है।
यह रसात्मकता किस प्रकार उदित होती है इसका उत्तर शंकुक ‘अनुमान’ के आधार पर बतलाते हैं। अनुमान निस्संदेह हमारा अर्थ-निर्णय है। काव्य-सामग्री को मन के स्तर पर भोगना है और उसकी पहचान करना है। इस प्रकार ‘मान’ यदि वस्तुनिष्ठ है तो अनुमान व्यक्तिनिष्ठ। ‘‘अनुमान रसानुभूति का प्रवेश द्वार है। उसी से उत्पन्न कल्पना रस की संवाहिका है। रसानुभूति निश्चित ही कल्पनाजनित अनुभूति है और कल्पना का उत्स ‘अनुमान’ ही है।’’[7]
‘अनुमान’ सामाजिक को किस प्रकार रसानुभूति तक ले जाता है? उत्तर यह कि- हमारा समस्त लौकिक व्यवहार सुख-दुःख, राग-विराग,घृणा-प्रेम, हास-परिहास विश्वास-अविश्वास आदि के इर्दगिर्द घूमता हुआ गतिशील रहता है और इसी लौकिक व्यवहार से समाज या लोक के सम्बन्ध बनते-बिगड़ते रहते हैं।
कवि इसी लोक-व्यवहार को काव्य में सृजित करता है। इस प्रकार समस्त काव्य-सृजन लोक-व्यवहार की ही प्रतीति होता है। जब कोई सदृहदय या सामाजिक काव्य का आस्वादन करता है तो लौकिक अनुभव के आधार पर सहज ‘अनुमान’ लगा लेता है कि काव्य द्वारा क्या व्यक्त हो रहा है।
इस बारे में आचार्य हेमचन्द्र एक उदाहरण देते हैं कि-‘‘कोई व्यक्ति एक कषाय फल खा रहा है। उसके मुख की आकृति एवं चेष्टा हमें सूचना देती है कि यह व्यक्ति कषाय फल खा रहा है और उस समय उसी प्रकार हमारे मुख में पानी भर आता है, जिस प्रकार का उस कषाय फल खाने वाले के मुंह में भर रहा होगा या हम कषाय फल खा रहे होते हैं तो भर आता है। बस इसी प्रकार राम रूप में अभिमत नट के स्थायी को देखकर सामाजिक की वासना के स्थायी में भी चवर्णा का अवकाश हो जाता है।[8]
आचार्य हेमचन्द्र ने कषाय फल का उदाहण देकर ‘अनुमान’ के आधार पर रसनिष्पत्ति के सम्बन्ध में एक तर्कसंगत सिद्धान्त का प्रतिपादन किया लेकिन बात यहीं खत्म हो जाती..
1. माना कषाय फल खाने वाले को देखकर दूसरे व्यक्ति के मुख में पानी भर आता है, लेकिन वह दूसरा व्यक्ति कषाय फल का वही स्वाद ‘अनुमान के आधार’ पर किसी भी प्रकार प्राप्त नहीं कर सकता जो कि कषाय फल खाने वाले व्यक्ति की स्वादेन्द्रियां ग्रहण करते हुए तृप्तता को प्राप्त होती हैं।
2. यदि दूसरे व्यक्ति की कषाय फल के प्रति किसी प्रकार की अरुचि है तो इस दशा में कषाय फल खाने वाले को देखकर उसके मुख में पानी आना असम्भव है।
3. यदि दूसरा व्यक्ति कषाय फल खाकर पहले से ही पूर्ण तृप्त है, तब उसके मुख में पानी आने की सम्भावना लगभग क्षीण ही होगी।
अतः कषाय फल खाने वाले को देखकर दूसरे व्यक्ति के मुख में पानी तभी आ सकता है जबकि –[क] अतृप्त हो [ख] उसमें कषाय फल के प्रति अरुचि न हो। [ग] मुख में पानी भर आने का मतलब यह भी नहीं है कि कल्पना में वह उसके स्वादादि को ज्यों का त्यों भोगते हुए तृप्तता को प्राप्त है। कषाय फल खाने वाले को देखकर तो दूसरे व्यक्ति के मन में अतृप्तता शुरू से लेकर अन्त तक बनी रहती है, जबकि कषाय फल खाने वाला तृष्तता का प्राप्त होता है।
इसलिये इस दृष्टान्त से यह तथ्य भी स्पष्ट रूप से उभरकर आते हैं कि रामादि की जो रसदशा होती है, सामाजिक उसका आस्वादन करते समय उसी रसदशा को ज्यों का त्यों न तो ग्रहण करता है और न उसी प्रकार, उसी अनुपात में रससिक्त होता है जैसा कि रामादि के रससिक्त होने की अवस्था होती है। आचार्य भरतमुनि इसी कारण कहते हैं कि-‘‘सुमनस् प्रेक्षक स्थायी भावों का आस्वादन करते हैं और हर्षादि को प्राप्त होते हैं।[9]
अस्तु! रसनिष्पत्ति का सूत्र काव्य में वर्णित आलम्बन और आश्रय पर भले ही ज्यों का त्यों लागू होता हो लेकिन काव्य का आस्वादन करने वाले समाजिकों का रागात्मक-बोध, काव्य के रसात्मक बोध से भिन्न ही नहीं, उसके विपरीत भी हो सकता है। क्योंकि ‘‘रसानुभूति कोई स्थिर, जड़ वस्तु नहीं है, वह तो सम्पूर्ण चेतना प्रक्रिया है, प्रवाह है, जिसमें से होकर हमारा व्यक्तित्व गुजरता है।’’।[10]
रसानुभूति का सम्बन्ध यदि हृदय-संवादी अर्थ का हमारी सम्पूर्ण चेतना में व्याप्त हो जाने और उसी अर्थ का हमारे व्यक्तित्व से होकर गुजरने से है तो यह भी तय है हमारा व्यक्तित्व ऐसी कोई वस्तु नहीं जिस पर कोई चीज ज्यों की त्यों उतारी जा सके। बल्कि इस सबसे अलग हमारे व्यक्तित्व की रागात्मक चेतना में वही अर्थ विलय होकर रसात्मक बन पाता है, जोकि हमारी रागात्मकता के अनुरूप हो। ‘ए’ समूह के रक्त में यदि ‘बी’ समूह का रक्त मिला दिया जाय तो ही ‘ए’ समूह का रक्त ‘बी’ समूह के रक्त को जिस प्रकार अस्वीकार करता है, ठीक वही स्थिति काव्य के आस्वादक की भी हो सकती है। भले ही यह भी सहृदय का एक प्रकार रसात्मकबोध ही है, लेकिन यह रसात्मकता  प्रतिवेदनात्मक होती है, जबकि पहली रसात्मक स्थिति का स्वरूप संवेदनात्मक होता है। यदि ऐसा न होता तो रति के विपरीत विरति या घृणा को रस-आचार्य रस-भाव के अन्तर्गत न रखते। कहने का अर्थ यह है कि काव्य का आस्वादन यदि हमें एक तरफ हर्षादि से सिक्त करता है तो दूसरी तरफ वह घृणादि से भी सिक्त करता है या कर सकता है। यह हमारे आत्मनिर्णय पर निर्भर है कि हम काव्य सामग्री को किस अर्थ में ग्रहण करते हैं ? एक सुधी और मर्मज्ञ आस्वादक तो बिहारी और मार्क्सवादी अर्थात् दोनों ही प्रकार के काव्य का आस्वादन करेगा। यदि उसके रागात्मक संस्कार बिहारी के काव्य के रागात्मक संस्कारों के अनुरूप होंगे तो रसरूप संवेदनात्मक हो जायेगा और रति के विभिन्न रूप जैसे हर्षादि को प्राप्त होगा। यदि उसके रागात्मक संस्कार काव्य-सामग्री विपरीत जाएंगे तो उसमें विरति घनीभूत होगी। इस स्थिति में उसके भीतर विरोध, विद्रोह, क्रोधदि का समावेश हो सकता है। ठीक उसी प्रकार लोक-कल्याण, लोकरक्षा के रागात्मक संस्कारों से आद्र आस्वादक को ऐसे काव्य के आस्वादन से ही हर्षादि प्राप्त होंगे, जिसमें कुरीतियों, अंधविश्वासों, साम्प्रदायिक उन्माद, जातीय वैमनस्य आदि का खुलकर विरोध किया गया हो, वर्गसंघर्ष को उभारा गया हो। लोकरंजन और चितवन की चिलकचौंध से भरे हुए काव्य से ऐसे आस्वादक को हर्षादि की प्राप्ति नहीं होगी।
कहने का तात्पर्य यह है काव्य का स्वभाव और आस्वादक का स्वभाव, काव्य के संस्कार और आस्वादक के संस्कार, काव्य की प्रवृत्तियां  और आस्वादक की प्रवृत्तियां, कुल मिलाकर काव्य की रागात्मकता और आस्वादक की रागात्मकता जब समानधर्मी होते हैं तो काव्य का आस्वादक काव्य को आत्मसात् करता हुआ काव्य के आस्वादन से आनंदानुभूति प्राप्त करता है। काव्य की रागात्मकता जब आस्वादक की रागात्मकता के विपरीत होती है तो आस्वादक के मन में प्रतिवेदनात्मक रसात्मकता उद्बोधित होती है।
इस प्रकार हम पाते हैं कि  काव्य जब वस्तुनिष्ठ से व्यक्तिनिष्ठ बनता है और उसका अर्थ आस्वादक के हृदय अर्थात् मन से संवाद की अवस्था में होता है तो आस्वादक इस चेतना में व्याप्त होने वाले अर्थ को अपने रागात्मक संस्कारों के अनुसार ग्रहण करता है।
रसनिष्पत्ति में आस्वादक के संस्कारों की कितनी महत्वपूर्ण भूमिका है, इसके बारे में आचार्य भरतमुनि कहते हैं कि -‘‘ भिन्न-भिन्न स्वभाव के लोग होते हैं। किसी को कोई शिल्प अच्छा लगता है, किसी को कोई नेपथ्य तो किसी को कोई वाक्चेष्टा। तरुण लोग काम में तुष्टि खोजते हैं, विदिग्ध लोग दार्शनिकता का पुट चाहते हैं, अर्थ परायण अर्थ की इच्छा करते हैं, विरागी मोक्ष से तुष्ट होते हैं, शूरवीर वीभत्स रौद्र और युद्ध प्रदर्शन में रमते हैं तो वृद्ध लोग धर्माख्यानों में।’’[11]
आचार्य भरतमुनि के उक्त तथ्यों के प्रकाश में यह बात एक दम साफ हो जाती है कि भिन्न-भिन्न स्वभावों से बने हमारे रागात्मक संस्कार ही हमारे आत्म को संतुष्टि प्रदान करते हैं। इस प्रकार रसानुभूति निस्संदेह आस्वादक के लिये ‘आत्मीयकरण’ की एक प्रक्रिया है। हम हृदय संवादी अर्थ से संवेदनात्मक रसानुभूति से तभी सिक्त हो सकते हैं जबकि काव्य में वर्णित आलम्बनों का धर्म अर्थात् आत्म, हमारे आत्म में बिना किसी द्वन्द्व या विरोध के सहज रूप से घुलनशील हो।
काम में तुष्टि पाने वाले तरुणजन विराग या मोक्ष के काव्य से जिस प्रकार संवेदनात्मक रसानुभूति नहीं प्राप्त कर सकते, ठीक उसी प्रकार विरागी लोगों को काव्य का कामरूप सारहीन महसूस होगा। स्वभाव का संबन्ध चूकि हमारी जीवनदृष्टि से है और यह जीवनदृष्टि हमारे उन निर्णयों की देन होती है जो हमें निश्चित रागात्मकता के साथ लौकिक या अलौकिक सम्बन्ध बनाने के लिये प्रेरित करती है। अतः यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि अगर तरुणजनों के राग का विषय काम, अर्थ-परायणों के राग का विषय अर्थ, विरागी का मोक्ष तो वृद्ध लोगों के राग का विषय धर्माख्यान होता है तो उनके इसी राग में रस कैसा है या कितना है, इस प्रश्न से महत्वपूर्ण यह प्रश्न है कि काव्य के आस्वादक का आत्म अर्थात् उसकी रागात्मक चेतना किस प्रकार की है? और उस रागात्मक चेतना में काव्य की रागात्मकता किस प्रकार विलय हो रही है? अर्थात काव्य को वह आत्मसात् किस प्रकार कर रहा है? काव्य के आत्मीयकरण की क्रिया कभी-कभी इतनी प्रबल होती है कि आस्वादक मात्र जो देख रहा है या अनुभव कर रहा है, रसानुभूति यही तक सीमित नहीं रहती, आस्वादक काव्यनाटक के घटनाक्रम से आगे भी घटित होने वाले घटनाक्रम को कल्पना में अनुमान के आधार पर भोगते हुए रससिक्त हो सकता है।
मुझे अच्छी तरह याद है जब ‘समाज को बदल डालो’ फिल्म देख रहा था तो उसके अन्तिम दृष्यों में अपने मृत आदर्शवान, सिद्धान्तवादी पति के जीवनमूल्यों में जीने वाली नायिका गलत मूल्यों के साथ जब समझोतों-भरी जि़न्दगी को जीने से बेहतर खुद को और अपने बच्चों को मौत के हवाले करना ज्यादा उचित समझती है और चावलों में जहर मिला देती है। जब वह चावलों में जहर मिला रही होती है तो यह सोचकर कि अब नायिका के साथ-साथ इसके बच्चों का भी प्राणान्त हो जायेगा, मैंने अपनी आखें बंद कर लीं और विलख कर रोने लगा। मेरे रोने की आवाज सुनकर आसपास के दर्शक अपनी-अपनी कुर्सियों से खड़े होकर यह तलाशने लगे कि इस तरह कौन रो रहा है। जब मेरी आंख खुली तो पाया कि बच्चे तो ज़हर खाकर मर चुके हैं और नायिका पर बच्चों की हत्या करने के आरोप में अदालत में मुकद्मा चल रहा है।
यह नायिका के साथ दर्शक के आत्मीयकरण का एक ऐसा उदाहण हैजिसमें नायिका का आत्म अर्थात् उसकी आदर्शों, सिद्धान्तों और जीवनमूल्यों की रागात्मकता दर्शक की रागात्मकता बन जाती है और उसी रागात्मकता की हत्या होते हुए देखकर वह इतना करुणाद्र हो जाता है कि  फिल्म के भावी दृष्यों का आस्वादन करने के बजाय वह अपनी आंखें मूंदकर कल्पना में आगामी दृष्यों को इस विचार से प्राप्त ऊर्जा अर्थात् भावावेश के साथ भोग लेता है कि ‘उफ़  अब नायिका और उसके बच्चों का  प्राणांत हो जायेगा।’
बहरहाल उक्त प्रकरण से कई नये तथ्य उजागर होते हैं-
1. ‘समाज को बदल डालो’ फिल्म की नायिका यदि दृष्य है तो आस्वादक दृष्टा। दृष्य के भीतर यदि गहरी निःशब्दता के बीच अपने तथा अपने बच्चों को मृत्यु के हवाले कर देने का विचार घनीभूत है तो दृष्टा के मन में यह विचार पूरी तरह व्याप्त है कि ‘यह बहुत बड़ा अनिष्ट होने जा रहा है और ऐसा नहीं होना चाहिए’। नायिका और उसके स्वयं के बच्चों की रक्षा के विचार से घनीभूत दृष्टा चूंकि सिर्फ दृष्टा है, इस नाते वह दृष्य की रक्षा किसी प्रकार नहीं कर सकता, अतः उसमें स्थायी भाव शोक का निर्माण होता है और उसका समूचा व्यक्तित्व करुणाप्रद होकर नेत्रों का माध्यम से अश्रु के रूप में प्रकट होता है। इस प्रकार हम पाते हैं कि जो रसावस्था दृश्य की है, दृष्टा की कदापि नहीं। दृष्य मृत्यु की ओर उन्मुख है जबकि दृष्ट रक्षा और शोक की ओर।
डॉ. ऋषिकुमार चतुर्वेदी कहते हैं कि ‘‘भट्टनायक को साधारणीकरण की धारणा का विश्लेषण करते हुए हमारी दृष्टि सबसे पहले त्रत्रत्रत्रपर ठहरती है। एक तो ‘निज निविड-मोह-संकटकता निवारण और दूसरे तेज भावादि के वैशिष्ट्य का तिरोहन। निजनिवड़मोह से सीधा-सीधा  तात्पर्य अपने सबके सबसे निचले स्तर पर लिपटे.....       से, उसकी संकटता निवारण का अर्थ हुआ उससे मुक्ति अर्थात् संकुचित ‘स्व’ के बन्धनों से ऊपर उठना | यही वस्तुतः सत्व का उद्रेक है। भट्टनायक के ‘विभावादि के वैशिष्टय’ को शंका की दृष्टि से देखते हुए डॉ. ऋषिकुमार चतुर्वेदी लिखते हैं कि ‘‘काव्यादि में विभावादि के वैशिष्ट्य का तिरोहन असिद्ध होता है। कवि जो अनेक विधि गुणों और अलंकारों सहारा लेता है या नट वाचिक, आहर्य आदि अभिन्न का सहारा लेता है, वह क्या इसलिये कि देश काल था, पात्रों के विशेषताएं दूर हो जायें या इसलिये कि उनकी विशिष्टताएं उभरकर सहृदय तक सामने आयेंहमारी समझ में तो वह विशिष्टताओं को उभारने के लिये ही कला का सहारा लेता है?[12]
डॉ. ऋषिकुमार चतुर्वेदी के उक्त कथन से इतना तो स्पष्ट है ही कि भट्टनायक की साधारणीकरण सम्बन्धी  धारणा अतार्किक है। विभावादि के वैशिष्ट्य का तिरोहन’ होने का मतलब यह है कि आलम्बन एक जड़वस्तु बन जाये। ‘समाज को बदल डालो’ फिल्म कोई जड़ वस्तु नहीं है और न कोई नाट्य-प्रस्तुति जड़ वस्तु होती है। पात्रों की विशेषताओं के तिरोहित होने का अर्थ तो यह हुआ कि आलम्बन मात्र एक पुतला महसूस हो। अगर आलम्बन पुतला बन जायेगा तो हम उसकी  अनुभावविहीन काया से कैसे कोई अर्थ ग्रहण कर रसानुभूति से सिक्त नही हो सकेंगे?
यही कारण है कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल अगर साधारणीकरण मानते भी हैं तो आलम्बन के धर्म का साधरणीकरण मानते हैं। जबकि आलम्बन के धर्म का साधरणीकरण नहीं आत्मीयकरण होता है। इस बात के पुष्टि के लिये ‘समाज को बदल डालो’ फिल्म का पुनः उदाहरण उठाया जाये तो फिल्म के आस्वादक के व्यक्तित्व का ‘स्व’ नायिका के व्यक्तित्व अर्थात् ‘पर’ में समाहित होकर और ममत्व और परस्त के बन्धनों से मुक्ति पाकर रसानुभूति को प्राप्त नहीं होता बल्कि नायिका के आत्म अर्थात् रागात्मकता का विलय जब आस्वादक के आत्म् अर्थात् उसकी रागात्मक चेतना में होता है, तभी फिल्म का आस्वादक रसानुभूति से घनीभूत होता है। ‘स्व’ का ‘पर’ में समाहित का नाम ही आत्मीयकरण है। आत्मीयकरण की इस प्रक्रिया में आस्वादक ममत्व और परत्व बन्धनों से मुक्त नहीं होता बल्कि सारा का सारा परत्व-ममत्व  विलय होकर आस्वादक को रसानुभूति से सिक्त करता है।
 यह आस्वादक का फिल्म ‘समाज को बदला डालो’ की नायिका से संवेदनात्मक जुड़ाव का ही परिणाम है कि नायिका अपने ईमानदार और स्वाभिमानी पति की मृत्यु के उपरांत जब उसकी सन्तान को भूख और गरीबी से त्रस्त होकर ढकेल से समोसे चुराकर खाते हुए देखती है तो उसे लगता है कि उसके पति के स्वाभिमानी और ईमानदार चरित्र की हत्या हो रही है और इससे बचने का एक ही उपाय है बच्चों सहित स्वयं की सदा-सदा के लिये इस संसार से विदाई। जब फिल्म के आस्वादक के हृदय अर्थात् मन में सारी त्रासद परिस्थिति, संवाद की स्थिति में पहुंचती है तो उसका मन इस अर्थ से आच्छादित हो जाता है कि- उफ़  नायिका और उसके बच्चे नायक की मृत्यु के उपरांत किस प्रकार दुखी और भूख से विलख रहे हैं। भूख मनुष्य को किस प्रकार चोरी जैसे अपराध की ओर उन्मुख कर देती है।’’
दुःख, भूख और चोरी का यह विचार ही उसे लगातार शोकग्रस्त करता चला जाता है। जब चीजें, घटनाएं, परिस्थितियां हमारे अनुकूल या अनुरूप नहीं होते हैं तो हमें दुःख तनाव और शोक देते हैं। ठीक यही स्थिति ‘समाज को बदल डालो’ फिल्म के आस्वादक की है। फिल्म में जो कुछ घटित होता है। वह आस्वादक के आत्म के अनुरूप न होने के कारण उसे लगातार शोकग्रस्त करता चला जाता है। आस्वादक जब फिल्म के अन्तिम दृष्यों में नायिका को बच्चों सहित आत्महत्या के प्रयासों में रत देखता है तो उसकी शोकाकुल अवस्था अविरल अश्रुधरा का रूप ग्रहण कर लेती है।
1.-ना.शा. 7/7
2. ना.शा. अध्याय-6,पृष्ठ 93
3.-ना.शा. अध्याय-6, पृष्ठ 92
4.हिं. अ. भा. पृष्ठ 515
5.-रस सिद्धांत, पृष्ठ 24
6. वही
7. वही पृष्ठ 15
8. वही , डॉ. नगेन्द्र पृष्ठ 155
9. ना.शा. पृष्ठ 93
10. रस सिद्धांत, डॉ. ऋषिकुमार चतुर्वेदी, पृष्ठ 64
11.- ना.शा. 27/ 55-57-58
12.- रस सिद्धांत, डॉ. ऋषिकुमार चतुर्वेदी, पृष्ठ 85-86           
--------------------------------------------------------------
रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001

मो.-9634551630