Friday, May 6, 2016

काव्य की आत्मा और सात्विक बुद्धि +रमेशराज




काव्य की आत्मा और सात्विक बुद्धि

+रमेशराज
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आचार्य भोज काव्य के क्षेत्र में आत्मा को अनावश्यक मानते हुए ‘सात्विक बुद्धि की स्थापना करते हैं। सात्विक अर्थात् दूसरों के सुखदुख में प्रविष्ट हो सकने की सामर्थ्य  वाली मानव चेतना |’’ [1]
इस प्रकार देखें तो आचार्य भोज काव्य की आत्मा के रूप में ‘सात्विक बुद्धि’ की स्थापना कर एक तरफ जहां रस को ‘गूंगे के गुड़ का स्वाद’ होने से बचाया, वहीं अलंकार ध्वनि, वक्रोक्ति आदि की काव्य में आत्मरूप से प्रतिष्ठित कराये जाने वाली अतिशयता का खुलकर विरोध किया। आचार्य क्षेमेन्द्र के ‘औचित्य सिद्धान्त’ को संशोधित कर आचार्य भोज ‘सात्विक बुद्धि’ को काव्य में जो आत्म प्रतिष्ठा दी, वह हर प्रकार प्रंशसनीय इसलिये है क्योंकि ‘सात्विक बुद्धि’ में ही वह सामर्थ्य होती है, जो सत्-असत्, अंधेरे -उजाले, शोषक-शोषित, अत्याचारी-पीडि़त में मात्र अन्तर ही नहीं करती, वह असत् से सत् की, अंधेरे से उजाले की, शोषक से शोषित और अत्याचारी से पीडि़त की रक्षा करने में हर प्रकार सहायक होती है। लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं है कि ‘काव्य की आत्मा ‘सात्विक बुद्धि’ को ही मान लिया जाये। आचार्य भोज इस बात पर कोई बल भी नहीं देते। दरअसल ‘सात्विक बुद्धि’ को प्राणवत्ता तो सत्योन्मुखी रागात्मक चेतना ही प्रदान करती है। सत्, शोषित, पीडि़त से जब तक हमारे सम्बन्ध रागात्मक नहीं होंगे, तब तक इनके प्रति न तो किसी प्रकार की रमणीयता का उदय होना सम्भव है और न मन के भीतर प्रेम का संचार हो सकता है। अतः यह कहना असंगत न होगा कि दूसरों के सुख-दुःख में प्रविष्ट कराने की सामर्थ्य वाली मानवचेतना, बिना रागात्मक के या तो तटस्थ हो जायेगी या अपनी मूल सामर्थ्य को ही खो बैठेगी।
जिस प्रकार रस का निर्णय अन्ततः अर्थनिर्णय पर निर्भर है,[2] उसी प्रकार रागात्मकता भी हमारे वैचारिक निर्णयों की देन होती है। हम यकायक ही किसी से प्रेम नहीं कर बैठते और न किसी के प्रति विद्रोह। जो वस्तु हमारे आत्म अर्थात् रागात्मक चेतना को तोष प्रदान करती हैं उनके प्रति हम में रमणीयता बढ़ जाती है। जो वस्तुएं हमारे आत्म को असंतोष या असुरक्षा से अनुभूत करती हैं, उनके प्रति हम स्वभाव से विद्रोही हो जाते हैं। इस प्रकार हमारी रागात्मकता का चक्र बुद्धि या चेतना के सहारे आत्मसुरक्षा या आत्मतोष के इर्दगिर्द घूमता हुआ आगे बढ़ता है।
आचार्य भोज रस को अपने तात्विक रूप में अहंकार मानते हैं। और अहंकार के व्यक्त रूप को अभिमान।’’[3] अहंकार अर्थात स्वगत रागात्मक चेतना। स्वगत रागात्मक चेतना जब शेष सृष्टि के साथ रागात्मक सम्बन्ध स्थापित करती है तो उसकी रसात्मकता मात्र रत्यात्मक ही नहीं होती, वह कभी वात्सत्यात्मक बनती है तो कभी ममत्व भरी होती है तो कभी उसका रूप श्रद्धात्मक हो जाता है। इस प्रकार स्व से घनीभूत रागात्मकता ‘पर’ की समाविष्टि बन जाती है। स्व से ‘पर’ की ओर जाने की रागात्मक क्रिया जब अधोमुखी होती है तो मोह, लालासा, लिप्सा, कुंठा, व्यक्तिवाद, दुराचार, व्यभिचार और स्वार्थ को जन्म देती है। स्व से पर की ओर जाने की रागात्मक क्रिया जब सात्विक होती है तो समस्त जगत् से प्रेमपरक सम्बन्ध स्थापित ही नहीं करती, जगत् के प्राणियों पर आये संकट, दुखादि के प्रति करुणाद्र भी होती है। लोक को संकट में डालने वाले कारकों के प्रति विरोध और विद्रोह की रसात्मकता में सघन होती है।
आचार्य भोज कहते हैं कि ‘‘अहंकार या अभिमान को  ‘ शृंगार’ भी कहते हैं क्योंकि इसमें मनुष्य को परिष्कृति के उच्चतम  शृंग़ पर ले जाने की क्षमता होती है।[4]
इस प्रकार हम देखते हैं कि भोज ने शृंगार को नयी व्यापकता, सार्वभौमिकता ही प्रदान नहीं की, उन्होंने अहंकार को एक नूतन ऊर्जा भी दी, जिसमें दूसरों की रागात्मकता को परिष्कृत रूप में द्रवित कर अपने में समाहित कर लेने की अपार क्षमता अन्तर्निहित रहती है।
अहंकार अर्थात् स्वगत् रागात्मक चेतना, परगत रागात्मक चेतना को किस प्रकार परिष्कृत द्रवित करती है और अन्त में अपने में समाहित कर लेती है, इसको समझाने के लिये यहां एक उदाहरण देना आवश्यक है।
‘‘वह मरा कश्मीर के
हिमशिखर पर जाकर सिपाही
बिस्तरे की लाश तेरा
और उसका साम्य क्या है
पीढि़यों पर पीढि़यां उठ
आज उसका गान करतीं’’
       +माखनलाल चतुर्वेदी
कवि ने इस कविता में एक ऐसे सिपाही का वर्णन किया है जिसकी रागात्मकता में समूचे राष्ट्र की रक्षा की कामना रची-बसी है। राष्ट्र की रक्षा करते हुए वह कश्मीर के हिमशिखर पर अपने प्राणों की आहुति दे देता है। सिपाही के इस वीरकर्म को पढ़-सुन या देखकर समूचा राष्ट्र उस पर गौरव अनुभव करता है और उसके प्रति श्रृद्धानत् हो उठता है। कवि ऐसे में बिस्तर पर पड़ी उस लाश को धिक्कारता है, जिसका राष्ट्ररक्षा से कोई वास्ता नहीं रहा है अर्थात् जिसकी रागात्मक चेतना ‘मैं’ से उत्पन्न होकर सिर्फ ‘मैं’ में ही विलीन हो गयी है।
इन पंक्तियों को यदि हम आचार्य भोज की मान्यताओं के संदर्भ में व्याख्यायित करें तो कश्मीर के हिमशिखर पर राष्ट्र के लिये प्राण न्यौछावर करने वाले सिपाही के अहंकार या स्वाभिमान में राष्ट्रीय रागात्मकता इस तरह द्रवित होकर घुलमिल गयी है कि सिपाही अपने आप में एक राष्ट्र बन गया है। कविता में दूसरी स्थिति राष्ट्रीय रागात्मकता से सिक्त उन राष्ट्रवासियों की है, जिनका अहंकार या स्वाभिमान अर्थात् ‘स्व’, सिपाही के रागात्मक उत्सर्ग को अपने भीतर गर्व और श्रृद्धा के साथ द्रवित कर लेता है। कविता में तीसरी स्थिति स्वयं कवि की है जो वीरगति को प्राप्त सिपाही के प्रति श्रद्धानत तो है ही, साथ ही ऐसे व्यक्तियों के अहंकार या स्वाभिमान को दुत्कारता या धिक्कारता है जिनकी रागात्मकता स्वार्थ के वशीभूत होकर भोग- विलास में ही अपनी जीवन-लीला समाप्त कर देती है।    इस कविता का सृजन निस्संदेह कवि की ‘सात्विक बुद्धि’ ने किया है, जिसमें सत्योन्मुखी रागात्मक चेतना अन्तर्निहित है।
माखनलाल चतुर्वेदी की इस कविता से एक नया तथ्य और उजागर होता है कि विभाव अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से मात्र उसी तारीके की रसोत्पत्ति नहीं होती जैसा कि रसाचार्य अब तक कहते चले आ रहे हैं, बल्कि रसोत्पत्ति का सम्बन्ध सीधे-सीधे हमारे निर्णयों से है। सिपाही की मृत्यु पर स्थायी भाव शोक का निर्माण होना चाहिए, जबकि उक्त कविता में आश्रय श्रृद्धा और गर्व की ऊर्जा से आद्र होकर सिपाही के वीरकर्म का गुणगान कर रहे हैं। मृत्यु का शोक उनसे कोसों दूर है।
बहरहाल ‘स्व’ के भीतर ‘पर’ की समाविष्ट का मतलब ‘पर’ का उदात्त रूप में ‘स्व’ हो जाना भी है। इस प्रसार ‘स्व’ समूची मानव चेतना तक विस्तार पा जाता है। यही काव्य की सात्विक बुद्धि है और सात्विक बुद्धि की सत्योन्मुखी रागात्मक चेतना और इसी का सीधा-सीधा सम्बन्ध काव्य की आत्मा से है।
सन्दर्भ-
1.– रससिद्धांत, डॉ. चतुर्वेदी, पृष्ठ-112
2. कविता के नये प्रतिमान, डॉ. नामवर सिंह
3.रस सिद्धांत, डॉ. ऋषिकुमार चतुर्वेदी, पृष्ठ-121
4.भोज शृंगार प्रकाश, पृष्ठ-465         
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रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001

मो.-9634551630

काव्य की आत्मा और औचित्य +रमेशराज




काव्य की आत्मा और औचित्य

+रमेशराज
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डॉ. नगेन्द्र अपनी पुस्तक ‘आस्था के चरण’ में लिखते हैं कि काव्य के विषय में और चाहे कोई सिद्धान्त निश्चित न हो, परन्तु उसकी रागात्मकता असंदिग्ध है।... कविता मानव मन का शेषसृष्टि के साथ रागात्मक सम्बन्ध स्थापित करती है।’’
डॉ. ऋषि कुमार चतुर्वेदी का मानना है कि कविगत और सहृदयगत रस को लें-इस रस पर तात्त्विक रूप में तो हृदय की वह आद्रता और रागात्मकता है जिससे भावों का जन्म होता है।’[1]... जहां कोई चित्रावृत्ति कवि हृदय की गहन रागात्मकता से जन्म लेती है, वहां उसका ध्वन्यात्मक रूप ग्रहण कर लेना स्वाभाविक है।[2] वस्तुतः रस कोई निरपेक्ष वस्तु नहीं है वह किसी विशेषयुग के जनमानस की नैतिक और रागात्मक धारणाओं से निर्मित होता है। उन धारणाओं पर आधारित कथा में रस सिद्ध हुआ रहता है। यही सिद्ध  रस का अर्थ है।[3] ऐतिहासिक कथानक और पात्रों पर बल देने का एक कारण तो यही है कि वे भारतीय मानस की नैतिक वृत्ति को संतोष देने में समर्थ हैं, दूसरे यह कि युगों से अपना अस्तित्व प्राप्त करते रहने के कारण वे भारतीय जनमानस की रागात्मकता में जम गये हैं। अतः स्वभाव से ही रसावह हैं। युंग जैसे मनौवैज्ञानिक ने भी पौराणिक पात्रों के रागात्मक प्रभाव को मुक्तकंठ से स्वीकार किया।[4]
आचार्य आनंदवर्धन कहते हैं कि ‘‘कोई ऐसी वस्तु नहीं जो रस का अंग भाव प्राप्त नहीं करती?’’ उनके अनुसार-‘‘रसादि चित्तवृत्तियां विशेष ही हैं और कोई ऐसी चित्तवृत्ति वस्तु नहीं जो चित्तवृत्तियों को उत्पन्न किये बगैर काव्य का विषय बन जाये। अतः कोई ऐसा काव्य प्रकार भी सम्भव नहीं जिसमें रस किसी न किसी रूप में विद्यमान न हो।[5] इसके लिये कवि का रागी होना आवश्यक है क्योंकि वह रागी हुए बिना किसी भी चित्तवृत्ति को उत्पन्न करने वाली वस्तु की चयन नहीं कर सकता। [6]
डॉ. नामवर सिंह लिखते हैं कि-‘‘ रागात्मक सम्बन्धों  के बिना रागात्मक वृत्तियों की कल्पना निराधार है....मनुष्य के अन्तर्राष्ट्रीय और अन्तवैश्विक सारे सम्बन्ध रागात्मक सम्बन्धों की कोटि में आते हैं और रागात्मक वृत्तियों के समान ही ये रागात्मक सम्बन्ध भी काव्य के अंन्तरंग हैं।[7] रागात्मक समृद्धि वहां है जहां वास्तविक स्थितियों से गुजरते हुए जागरूक मानव मन की अधिक से अधिक जीवंतता मूर्तिमान हुई है और जहां जीवन की वास्तविकता को देखने के लिये कोई ‘विजन’ मिलता है।[8]
विभिन्न विद्वानों द्वारा रागात्मकता के बारे में दिये गये उक्त बयानों से स्पष्ट है कि-
1. काव्य में रागात्मकता की स्थिति असंदिग्ध ही नहीं बल्कि इसी रागात्मकता से रस, ध्वनि, चित्तवृत्तता आदि का जन्म होता है।
2. जो मूल्य या निर्णय संस्कार रूप में रागात्मकता में रच-बस जाते हैं, वे स्वभाव से ही रसमय हो जाते हैं।
3. रागात्मकता ही वह मूलभूत प्राणतत्त्व है जिसके द्वारा मानव मन शेष सृष्टि के साथ मधुरिम और रसात्मक सम्बन्ध बनाता है। मानव मन की जीवंतता को मूर्तिमान करने में या जीवन की वास्तविकता को देखने-परखने या समझने के संदर्भ में रागात्मकता जैसे अनिवार्य तत्त्व की असंदिग्ध भूमिका को समझना आवश्यक ही नहीं परमावश्यक है। इस दृष्टि को प्राप्त करने के लिये कवि का सहृदय और रागी होना जरूरी है।
अतः यह कहना अनुचित न होगा कि राष्ट्रीय, सांस्कृतिक या मानवीय जीवन की दिव्य समृद्धि, रागात्मक समृद्धि के बिना किसी प्रकार सम्भव नहीं। लेकिन इसके लिये रागात्मकता का सत्योन्मुखी चेतना से युक्त होना आवश्यक है | अगर रागात्मकता सत्योन्मुखी चेतना से युक्त होगी तो आचार्य शुक्ल शब्दों में-‘‘भीषणता में भी अद्भुत मनोहरता, कटुता में भी अपूर्व मधुरता और प्रचण्डता में भी गहरी आद्रता के काव्य में दर्शन होंगे। यही नहीं काव्य से धर्म और मंगल की ज्योति अमंगल और अधर्म की घटा को फाड़ती हुई निकलेगी।’’
 इसलिये आनंदवर्धन अगर सम्पूर्ण रस-व्यवस्था का मेरूदंड औचित्य को मानते हैं तो कोई अटपटी बात नहीं कहते। ‘औचित्य विचार चर्चा’ के रचयिता आचार्य क्षेमेंद्र भी अभिव्यक्ति को तभी सरस मानते हैं जबकि काव्य द्वारा सम्प्रेषित अनुभूति जाति और युग के सांस्कृतिक आदर्शों, नैतिक मान्यताओं एवं मूल्यों से अनुशासित हो।’’
दरअसल आनंदवर्धन और आचार्य क्षेमन्द्र औचित्य के माध्यम से रागात्मकता को सत्योन्मुखी चेतना से युक्त बनाने पर ही बल देते हैं। अगर रागात्मकता सत्तत्त्वमय होगी तो उसका रसात्मकबोध सामाजिकों को लोकमंगल और लोकरक्षा के संस्कारों के लिये अभिप्रेरित करेगा। अतः कवि का रागी होना तो आवश्यक है परन्तु उसकी रागात्मकता यदि सत् तत्वमय नहीं है तो कवि के द्वारा निर्मित काव्यसंसार जीवन की वास्तविक स्थितियों को उजागर करने में असमर्थ ही नहीं हो जायेगा, उससे व्यक्तिवादी, रूढि़वादी लिजलिजे वाह्य सौन्दर्य की ध्वन्यात्मकता मुखर होगी। इस तरह की रागात्मकता हर प्रकार से मानवीय जीवन की रागात्मकता को ही विखंडित करेगी। रहीम ने सही कहा है कि-
कहि रहीम कैसे निभै बेर केर कौ संग
वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग।
डॉ. नगेद्र के अनुसार-‘‘माना राग की परिधि में अनूकल-प्रतिकूल, स्व-पर, सत्-असत् सुन्दर-कुरुप, मधुर-कटु और विराट-कोमल सभी के लिये अवकाश रहता है।[9] लेकिन यह भी सुनिश्चित है कि व्यक्तिवादी रागात्मक संस्कार शेषसृष्टि के साथ मानवीय रागात्मक सम्बन्धों को आघात ही पहुंचायेंगे। रागात्मक सम्बन्धों की सार्थकता बिना किसी औचित्य के अगर तय की जायेगी तो रागात्मकता के नाम पर अनुकूल के लिये प्रतिकूल, सत के लिये असत्, सुन्दर के लिये कुरुप, मधुर के लिये कटु, ठीक उसी प्रकार घातक सिद्ध होगा जैसे केर के लिये बेर।
साहित्य में आयी इस घातक स्थिति को ‘व्यापक अनुभूति का एक प्रमाण मानकर डॉ. नगेन्द्र यह कहते हैं- ‘‘साहित्य के मूल्यांकन की कसौटी जो अब तक चली आयी है, वही ठीक है अर्थात् आनंद साहित्य की सृजनक्रिया स्वयं साहित्यकार को आनंद देती है। और उसके व्यक्त रूप का ग्रहण पाठक या श्रोता को आनंद देता है। हमें जो साहित्य जितना ही गहरा और स्थायी आनंद दे सकेगा, उतना ही वह महान होगा, चाहे उसमें किसी सिद्धान्त का साम्यवाद, गांधीवाद, मानववाद, पूंजीवाद, किसी भी वाद का समर्थन हो या विरोध।“
डॉ. नामवर सिंह का कथन ऐसी अधकचरी मान्यताओं के प्रति बड़ा मार्मिक महसूस होता है कि-‘‘जो केवल अनुभूति क्षमता के मिथ्याभिमान के बल पर नयी कविता को समझ लेने तथा समझकर मूल्यनिर्णय का दावा करते हैं, व्यवहार में उनकी अनुभूति की सीमा प्रकट होने के साथ-साथ ही यह तथ्य भी स्पष्ट हो जाता है कि काव्य समीक्षा में हवाई ढंग से सामान्य अनुभूतियों का सहारा लेना भ्रामक है।’’
 डॉ. नगेन्द्र की सत् और असत् में अंतर न कर पाने वाली इसी रागात्मक दृष्टि पर खीजकर अगर डॉ. रामविलास शर्मा यह कहते हैं कि- डॉ. नगेन्द्र की अनुभूति सन्-36 के छायावाद की है, उनके विचार सन्-26 के अधकचरे फ्रायड-भक्तों के हैं ’’, तो सही समय पर एक बेहद सही बात को ही नहीं उद्घाटित करते बल्कि रागात्मक समृद्धि के नाम पर फैलाये गये ‘रागात्मक विपन्नता’ के रहस्य का भी पर्दाफाश करते हैं।
माना रागात्मकता काव्य के आत्मरूप में प्रतिष्ठित वह प्राणतत्व है जिसके द्वारा काव्य रसात्मक हो उठता है, लेकिन इस रस को मिठास, माधुर्य, गहरी आद्रता, अद्भुत मनोहरता, विराटता उद्दात्तता, सौम्यता तो औचित्य से ही प्राप्त होती है। आनंदवर्धन ‘रस भंग’ का कारण कोई और नहीं अनौचित्य को ही मानते हैं । रागात्मकता को उचित वाक्य रचना, अलंकार, वक्रोक्ति, छंदादि जहां प्रगाढ़ता प्रदान करते हैं वहीं उसे औचित्यपूर्ण विचारधाराएं सत्योन्मुखी चेतना से युक्त करती हैं। रागात्मकता का यह सत्योन्मुखी स्वरूप जब काव्य की आत्मा में प्रतिष्ठित होता है तो सुन्दरता के लिये असुन्दरता के आवरणों को हटाता है। पूंजीवाद के खिलाफ मार्क्सवाद बन जाता है, व्यक्तिवादिता के बीच समाजवाद को फैलाता है, गांधी और भगतसिंह की विचारधराओं में अंतर करना सिखलाता है। शोषित को शोषित से, अबला को बलात्कारी-अत्याचारी-व्यभिचारी की विकृत रागात्मकता से मुक्ति दिलाता है। सच्चे प्रेम की स्थापना के लिये वह खाला के व्यावसायी, स्वार्थी, घिनौने चरित्र का विरोध करता है-
‘यह तो घर है प्रेम का खाला का घर नाहिं।’
सत्योन्मुखी रागात्मकता से घनीभूत काव्य का आनंद वास्तविक शिवतत्व और सुन्दरता से आप्लावित होता है। जबकि पूंजीवादी शोषक, अत्याचारी, व्यभिचारी, भोगविलासी विचारधाराओं का पोषण करने वाली अपसंस्कृति का रागरूप अंधेरे की ऐसी सत्ता का पोषक होता है जो समूची मानवता को निगल जाता है। ऐसी रागात्मकता की उपलब्धि भी निश्चित आनंददायी होती है लेकिन यह आनंद ठीक इस प्रकार होता है-
‘कान्हा बनकर जायेंगे फिर पहुंचायेंगे कोठों तक
जाने कितनी राधाओं को इसी तरह वे छल देंगे।’
अतः पाश्चात्य विद्वान होरेस का ‘औचित्य सिद्धान्त’ भले ही उपदेशमूलक हो, लेकिन इसकी सार्थकता और सच्ची आनंदोपलब्धि असंदिग्ध है। होरेस का कहना है कि-‘‘कवि शिव और सुन्दर की प्रतिभा रखता है, वह पाठक को मुग्ध भी कर सकता है और शिक्षा भी दे सकता है। जिसका मस्तिष्क लोलुपता या दृव्य लिप्सा से आक्रान्त या दूषित हो चुका है वह अच्छी कविता नहीं लिख सकता। कविता की जागरूक विवेक शक्ति ही श्रेष्ठ काव्य के सृजन को अनुप्राणित करती है, विवेक शक्ति के बिना चिन्तन सम्भव नहीं। और चिन्तन की प्रखरता औचित्य की पृष्ठभूमि पर ही सम्भव है।’’[10]
 सार यह है कि कोरी तुकबन्दी, या कोरा शब्दाडम्बर जिस प्रकार कविता की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, ठीक उसी प्रकार आत्मरूप में औचित्यपूर्ण सत्योन्मुखी रागात्मक चेतना के समाहित किये बिना सच्ची और वास्तविक कविता प्राप्त नहीं की जा सकती।
सन्दर्भ-
1., 2., 3., व 4. –रस सिद्धांत, पृष्ठ-80-81 व 199
5.- कविता के नये प्रतिमान
6. व 7.-ध्वन्यालोक, पृष्ठ-५२६-२७, ५३०
8.-कविता के नये प्रतिमान, पृष्ठ-62
9.- आस्था के चरण , पृष्ठ-184
10.- Horace-on the art of poetry-58           
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रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001

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काव्य की आत्मा और रीति +रमेशराज




काव्य की आत्मा और रीति

+रमेशराज
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भट्टलोल्लट के लिये तो रस अपने तात्विक रूप में उसी प्रकार ह्दयस्थ रागात्मकता का पर्यायवाची है जिस प्रकार वह भरतपूर्व आचार्यों के लिये था। उसी रागात्मकता में से समस्त भाव उगते हैं, उसी में वे बढ़ते, फलते-फूलते हैं और उपचित होते हैं। [1]
इस कथन से यह तथ्य तो एक दम सुस्पष्ट है ही कि रागात्मक ही काव्य का वह प्राण तत्व है, जिसमें समस्त भावों का जन्म होता है और इस रागात्मकता के अभाव में कोई भी भाव न तो बढ़, फूल-फूल सकता है और न उपचित हो सकता है।
सच बात तो यही है कि रागात्मता काव्य की समस्त सत्ता में इस प्रकार समायी रहती हे जिस प्रकार की फल के भीतर मिठास या फूल के भीतर सुगन्ध। रागात्मकता ही काव्य का वह स्नायुतंत्र है जिससे काव्य चेतन ही नहीं, रस, अलंकार, ध्वनि रीति, औचित्य आदि के माध्यम से अपनी जीवंतता का परिचय देता है|
आचार्य वामन यह कहते है कि सौन्दर्य ही अलंकार है और काव्य अलंकार से ही ग्राह्य होता है- ‘सौन्दर्यमलंकार, काव्य ग्राहय मलंकारात्’ |
क्या इन अलंकारों या सौन्दर्य का आलेकमयी स्वरूप बिना रागात्मकता के स्पष्ट किया जा सकता है? काव्य भले ही अलंकारों से ग्राहय होता हो, उसकी ग्राहयता बिना रागात्मक-दृष्टि के अग्राहय रहेगी। इसी कारण तो आस्वादक का सह्दय होना आवश्यक बतलाया गया है।
आचार्य वामन आगे कहते हैं कि रीत ही काव्य की आत्मा है [रीतारात्मा काव्यस्य] और उन्होंने इस रीति को इस प्रकार स्पष्ट किया कि-‘विशिष्ट पद रचना ही रीति  है [विशिष्ट पद-रचनाः रीतिः ] | ‘विशिष्ट’ की उन्होंने यूं व्याख्या की कि गुण ही विशिष्टता है [विशेषो गुणात्मा] | उनके लिये रीतियों में भी वैदर्भी गुण श्रेष्ठ है क्योंकि वह समग्र गुण है क्योंकि यह वाणी का स्पर्श पाकर मधु-स्त्रावण करने लगती है | यह रीति ही अर्थ गुण सम्पदा के कारण आस्वाद्या होती है। उसकी गुणमयी रचना से कोई ऐसा पाक उदित होता है जो सद्दय-हृंदयरंजक होता है | उसमें वाणी को इस प्रकार स्पंदित कर देने की शक्ति है जो सारहीन भी सारवान प्रतीत होने लगे। [2]
काव्य की आत्मा रीति या उसका वैदर्भी गुण, जिसके आलोक में सारहीन भी सारवान प्रतीत होने लगता है, जो अर्थ गुण सम्पदा से परिपूर्ण है, को काव्य की आत्मा मानने से पूर्व हमें डॉ. नगेन्द्र के इन तथ्यों को समझना आवश्यक है कि ‘‘-जिस काव्य में रागात्मक आस्वाद प्रदान करने की क्षमता जितनी अधिक होगी, उतना ही उसका मूल्य होगा।--- बुद्धि भी अनुभव की सघनता से पुष्ट होती है इसलिये मानवीय रागात्मक अनुभव की सघनता से पुष्ट होती है इसलिये मानवीय रागात्मक अनुभूति और बौद्धिक चेतना परस्पर विरोधी नहीं हैं।’’
डॉ. नगेन्द का उक्त कथन आचार्य वामन के वैदर्भ गुण की उन सारी विशेषताओं का उत्तर दे देता है जिसके द्वारा सदह्दय-हृदय रंजक होता है, वाणी इस प्रकार स्पन्दित होती है कि सारहीन व सारवान प्रतीत होता है। सारहीन को सारवान बनाने वाला कोई और नहीं, वही आत्म तत्व है जिसको रागात्मक चेतना कहा जाता है | अतः यहां यह कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि विशिष्ट पद रचना ‘रीति’ का प्राण तत्व रागात्मकता है। इस संदर्भ में डॉ. राकेश गुप्त की यह टिप्प्णी बेहद महत्वपूर्ण है कि -‘‘ रीति सम्प्रदाय के प्रवर्तक आचार्य वामन ने अलंकारों को उचित महत्व देते हुए भी गुणों पर आश्रित रीति को काव्य की आत्मा घोषित किया। उन्होंने वैदर्भी, गौड़ी और पांचाली ये तीन रीतियां, दश शब्द गुण तथा दशअर्थ गुण माने | वामन के मत से वैदर्भ रीति समग्रगुणा होने से सर्वश्रेष्ठ है | गौड़ी केवल  ओज और कांति तथा पांचाली में केवल माधुर्य और सौकुमार्य के गुण होते है | ‘रीति काव्य की आत्मा है’ इस कारण आठ गुणों से रहित गौड़ी और पांचाली रीतियों के काव्य भी वामन के मत से उत्तम श्रेणी के काव्य हैं। इससे स्वतः सिद्ध है कि कोई भी गुण काव्य के लिये अनिवार्य नहीं है। ओज और माधुर्य गुणों से हीन अनेक काव्य रचनाओं के उदाहरण दिये जा सकते हैं। प्रसाद’ की ‘कामायनी’ प्रसाद-गुण से रहित होने पर भी आधुनिक महाकाव्य में सर्वाधिक समादृत है।’’ [3]
आचार्य वामन की वैदर्भी रीति भले ही समग्र गुणा होने से सर्वश्रेष्ठ हो लेकिन आचार्य गौड़ी और पांचाली रीति के अन्तर्गत भी उत्तर श्रेणी के काव्य सृजन स्वीकारते हैं। अतः  रीति के अन्तर्गत किसी भी रीति से किया गया काव्य सृजन उनके सिद्धान्त को हर प्रकार व्यापकता ही प्रदान करता है, इससे स्वतः यह सिद्ध नहीं हो जाता कि कोई भी गुण काव्य के लिये अनिवार्य नहीं हैं और न इस प्रकार रीति सिद्धान्त खारिज हो जाता है। इसलिये डॉ. राकेश गुप्त का यह कहना कि ओज और माधुर्यगुणों से हीन अनेक काव्य रचनाओं के उदाहरण दिये जा सकते हैं। प्रसाद की ‘कामायनी’ प्रसाद गुण से रहित होने पर भी आधुनिक महाकाव्यों में सर्वाधिक समाद्र्त है’’ अटपटा और अतार्किक कथन लगता है। प्रसाद की कामायनी ‘प्रसाद’ गुण से भले ही रहित हो लेकिन इसमें माधुर्य का विलक्षण अन्तर्भाव अन्तर्निहित है, जो प्रगाड़ रागात्मकता के द्वारा पुष्पित, पल्लवित और सुवासित हुआ है।
सन्दर्भ-
1.रस सिद्धांत, डॉ. ऋषिकुमार चतुर्वेदी, पृष्ठ-60
2.काव्यालंकार सूत्र वृत्ति 1/1/111, 1/1/20, 1/1/21
3.राकेशगुप्त का रस-विवेचन, पृष्ठ-87          
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रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001

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काव्य की आत्मा और अलंकार +रमेशराज




काव्य की आत्मा और अलंकार


+रमेशराज
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     वैसे तो भामह, दण्डी, उद्भट आदि अलंकारवादियों ने यह बात बलपूर्वक या स्पष्टरूप से नहीं कही है कि अलंकार काव्य की आत्मा होते हैं। लेकिन इन आचार्यों की कुछ मान्यताएं ऐसी आवश्य रही हैं, जिनके आधार पर अलंकार को काव्य का सर्वस्व एवं अनिवार्य तत्त्व स्वीकार किया गया है। इसी बात का सहारा लेकर कुछ अलंकारवादियों ने यह कहना प्रारम्भ कर दिया कि अलंकार काव्य की आत्मा होता है।  
भामह के अनुसार-‘‘ अलंकार काव्य का एक आभूषण तत्त्व होता है। जिसके रूपकादि अलंकार काव्य में इस प्रकार आवश्यक हैं, जिस प्रकार किसी नारी का सुन्दर मुख भी आभूषणों के बिना शोभित नहीं होता है।’’ [1]
दण्डी कहते हैं-‘‘काव्य शोभा करान् धर्मान् अलंकारने प्रचक्षते’ अर्थात् काव्य-शोभा को धर्म के अलंकार द्वारा ही आलोकित किया जा सकता है।
उद्भट ने रस को भी अलंकारों की सीमा में बांधते हुए कहा कि- ‘रस वछर्शित स्पष्ट  शृंगारादि रसादमय्, स्वशब्द स्थायी संचारी विभावाभिमी नयास्पदम्’ अर्थात् जहां स्वशब्द स्थायी, संचारी, विभाव तथा अभिनय के सहारे शृंगारादि नाट्य रस स्पष्ट होते हैं वहां रसवद्अलंकार होता है।
भामह, दण्डी और उद्भट की उल्लेखित मान्यताओं के आधार पर इतना तो स्पष्ट है कि अलंकार काव्य को शोभायमान बनाते हैं। पर यह शोभा काव्य के स्थल, वाह्य रूप, अर्थात् शिल्पपक्ष की शेाभा है। इसलिये अलंकारों की आत्मतत्त्व के रूप में स्थापना संदिग्ध है। जहां तक ‘रसवत् अलंकार’ की बात है तो इस बारे में डॉ. राकेश गुप्त का यह कथन दृष्टव्य है-‘‘अलंकारवादी आचार्यों [ भामह, दण्डी, उद्भट ] ने भरत के आठ नाट्य-रसों को ‘रसवत्’ नाम के अलंकार में समेट कर एक ओर रस के महत्व को कम किया तो दूसरी ओर अलंकार की व्यापकता को बढ़ाकर समस्त काव्य को उसकी परिधि में समेटने का प्रयास किया। जैसा  कि मम्मट की काव्य परिभाषा से स्पष्ट है कि अलंकार के बिना भी श्रेष्ठ कविता हो सकती है। पर इसके साथ ही यह भी प्रमाणित है कि केवल अलंकार के बल पर भी श्रेष्ठ कविता होती है। दण्डी द्वारा अलंकार को ‘काव्य शोभाकर धर्म’ कहना थोड़ा भ्रामक है क्योंकि अलंकार कोई ऐसी वस्तु नहीं है जिसे कविता से प्रथक करके देखा जा सके। अलंकार और अलंकार्य का भेद, जिसे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने बड़ा महत्व दिया है निराधार और निरर्थक है। ‘बिन पद चलै सुनई बिनु काना, कर बिनु करम करइ विधि नाना’, में से विभावना अलंकार को तथा ‘जिन कें रखी भावना जैसी, प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी’ में से ‘उल्लेख अलंकार’ को निकाल देने पर ऐसा क्या बचा रहता है, जिसे अलंकार्य या कविता कहा जा सके। इसी प्रकार निम्नांकित छंदों में से क्रमशः विरोधाभास और यमक अलंकारों के चमत्कार को हटा देने पर जो अलंकार्य बचेगा उसे कविता कहना कठिन है-
बंदउ मुनि पद कंज रामायन जेहि निरमयऊ  
सखर सुकोमल मंजु, दोष रहित दूषन रहित
कनक कनक ते सो गुनी मादकता अधिकाय
वा खाये बौरात  नर, या पाये बौराय।
इस प्रकार यह सिद्ध है कि अलंकार एक काव्यांग अवश्य है, काव्य का अनिवार्य तत्त्व नहीं। दंडी के इस कथन में किस समस्त अलंकार रस निषेचन के लिये है, रस शब्द भरत के आठ नाटय रसों का पर्याय न होकर काव्यस्वाद का पर्याय है।’’
डॉ. राकेश गुप्त के कथन से स्पष्ट है कि अलंकार एक काव्यांग के रूप में तो स्वीकार किया जा सकता है न कि काव्य का कोई अनिवार्य तत्त्व। लेकिन डॉ. गुप्त का यह कथन अन्तर्विरोधों को भी दर्शाता है। एक तरफ तो डॉ. गुप्त यह स्वीकारते हैं कि अलंकार के बिना श्रेष्ठ कविता हो सकती है, दूसरी तरफ उनका यह भी कहना है कि केवल अलंकार के बल पर भी श्रेष्ठ कविता होती है।
यदि अलंकार के बल पर ही कविता श्रेष्ठ हो सकती है तो ऐसी स्थिति में अलंकार आत्मतत्त्व के रूप में प्रतिष्ठित नहीं हो जाता? ‘‘बिन पद चलै खुनै बिनु काना, कर बिनु करम करे विधि नाना’’ में से विभावना अलंकार को निकाल देने के बाद क्या ऐसा कुछ बचा नहीं रह जाता जिसे कविता कहा जाये? पैरों से चलने, कानों से सुनने, हाथों से नाना प्रकार के कर्म करने में क्या इस गत्यात्मक ऊर्जा के माध्यम से श्रेष्ठ कविता तक नहीं पहुंचा जा सकता? मुख्य तथ्य तो यह है कि आत्म रूप को प्रस्तुत करने के लिये इस कविता में अलंकार को लाया गया है, जिसके माध्यम से विधि का अद्भुत और अलौकिक कर्म प्रकट होता है। कवि की दृष्टि भी इसी पर ही है। इसी प्रकार उल्लेख अलंकार की सार्थकता भी दोष दूषन रहित उस रूप को प्रकट करने में है जो सृजन का नियामक है। इसी कारण वह श्रद्धेय और वंदनीय है।’’ श्रद्धेय और वंदनीय रूप को प्रस्तुत करने के संदर्भ में यहां उल्लेख अलंकार मात्र साधन है, साध्य तो वह आत्मरूप है जिसकी ‘रागात्मक चेतनता’ सृजनात्मकता, सुकोमलता और कृपा में अन्तर्निहित है।
‘कनक, कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय, जा खाये बौरात नर, या पाये बौराय’’ से कनक को अगर कनक से अलग करके भी देखा जाय तो इन दोनों वस्तुओं का नर को बौरा देने का गुणधर्म समाप्त नहीं हो जाता। कवि ने बात को एक ही शब्द के दो बार प्रयोग से कविता में जो चमत्मकार पैदा किया है, इस चमत्कार का मूल प्रयोजन दोनों के मादक स्वरूप को एक साथ दर्शाना है। अतः यहां भी ‘यमक’ आत्मतत्त्व न होकर गौण तत्त्व ही है। कुल मिलाकर अलंकार काव्य के आत्म रूप के प्रस्तुत करने का एक तरीका-भर है, जिसे डॉ. राकेश गुप्त ‘काव्यांग’ मानते हैं। अगर डॉ. राकेश गुप्त द्वारा उल्लेखित कविताओं से इसी आत्मरूप की निकाल दिया जाये तो निस्संदेह यह अलंकार निर्जीव हो जायेंगे और इनकी सार्थकता व्यर्थ। अतः डॉ. गुप्त का यह कथन कि-‘अलंकार के बल पर भी श्रेष्ठ कविता होती है’ प्रामाणिक नहीं माना जा सकता। इस बात को निम्न उदाहरण देकर स्पष्ट किया जा सकता है।
‘‘मेरी तरनी को तारौ तारनहार
ए फंसि गयी भव सागर भंवर में
लोककवि रामचरन गुप्त की इन पंक्तियों में अनुप्रास अलंकार है और इस अनुप्रास के माध्यम से कवि ने ईश्वर से भंवर में फंसी हुई नाव को तट तक पहुंचाने की ईश्वर से प्रार्थना की है। क्योंकि कवि वह मानता है कि प्रभु ही इस कार्य को कर सकते हैं क्योंकि वे पहले ‘‘ऐसा करते आये हैं’। यहां देखें तो प्रभु के आत्मरूप को प्रकट करने के लिये ‘जो ‘सत्योन्मुखी रागात्मकता’ से युक्त है, जिसमें दीनों पर दया  का रूप संकटग्रस्त को संकट से उबारने की क्षमता विद्यमान है, अनुप्रास अलंकार का प्रयोग किया है। इसी बात को कोई दूसरा कवि इस प्रकार भी कह सकता है-
मेरी नैया फंसी भंवर में
प्रभु जी पार लगाओ
इस कविता में अलंकार का कोई सहारा नहीं लिया गया है, किन्तु क्या इसके कविता होने पर शंका की जा सकती है?
कहने का तात्पर्य यह है कि अलंकार तो मात्र कविता के आत्मरूप को व्यक्त करने में सहायक होते हैं। अतः अलंकारों की आत्म रूप में प्रतिष्ठा व्यर्थ है।
कविता का आत्मरूप तो वह रागात्मक चेतना है जो कभी प्रेम के सात्विक रूप में उभरती है तो कभी दुष्टों का विनाश करने के लिये उग्र और प्रचण्ड भावों में प्रकट होती है। यह उग्र और प्रचंड भाव विरोध, विद्रोह से लेकर रौद्र रूप में कविता के अन्तर्गत अनुभव किये जा सकते हैं।
सन्दर्भ –
1.का. अ.-113
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रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001

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