Saturday, July 16, 2016

रसानुभूति और आत्मीयकरण +रमेशराज




रसानुभूति और आत्मीयकरण  
   
+रमेशराज 
........................................................................
हिन्दी कविता के नवें दशक का यदि परम्परागत तरीके से रसात्मक विवेचन करें तो कई ऐसी अड़चनों का सामना करना पड़ सकता है कि  जिनके रहते रस की परम्परागत कसौटी या तो असफल सिद्ध होगी या परख के नाम पर जो परिणाम मिलेंगे, वह वर्तमान कविता का सही और सारगर्भित रसात्मक आकलन नहीं माने जा सकते। अतः जरूरी यह है कि आदि रसाचार्य भरतमुनि के रसनिष्पत्ति सम्बन्धी सूत्र-‘विभावानुभाव व्यभिचारे संयोगाद रस निष्पत्तिः’ में अन्तर्निहित भावसत्ता का वैचारिक विवेचन किया जाये और यह समझा जाये कि भाव का उद्बोधन किस ज्ञान या बुद्धि अवस्था में होता है। रस को गूंगे का गुड़ बनाकर परोसने से जो गूंगे नहीं है, उनके प्रति तो अन्याय होगा ही।
    वर्तमान कविता पर अक्सर यह आरोप लगाये जाते हैं कि यह कविता विचार प्रधान होने के कारण भावविहीन है | इसमें किसी प्रकार का रस.परिपाक सम्भव नहीं। यह तर्क ऐसे रसमीमांसकों का है, जो रस की अपूर्णता में ही पूर्णता का भ्रम पाले हुए हैं और भाव तथा रस की रट लगाये हुए हैं। उनके मन को यह मूल प्रश्न कभी उद्वेलित नहीं करता कि यह भाव किसके द्वारा और किस प्रकार निर्मित होकर रस.अवस्था तक पहुंचता है। रसों की तालिका में किसी नये रस की बढ़ोत्तरी भी नहीं करना चाहते हैं। जबकि आदि आचार्य मुनि ने जो रसतालिका प्रस्तुत की उसमें बाद में चलकर अनेक रस जोड़े गये। ऐसा इस कारण है कि आज के कथित रसमर्मज्ञ रस के प्रति चिंतक कम, व्यावसायिक ज्यादा हैं। उन्हें इधर.उधर से सामग्री इकट्ठा कर पुस्तक छपवाने और पैसा कमाने में रूचि अधिक है। मौलिक चिन्तन के प्रति उनका रूझान न बराबर है।
    बहरहाल यह तो निश्चित है कि चाहे कविता का परम्परागत स्वरूप रहा हो या कविता का बदला हुआ वर्तमान स्वरूप, सबके भीतर रस की धारा झरने की तरह फूटकर, कल.कल नाद करती हुई नदी बनकर बहती है और हर एक सुधी पाठक के मन को आर्द्र करती है। परम्परागत कविता के रसात्मक आकलन के लिये तो हमारे पास एक बंधी-बंधाई कसौटी है, लेकिन वर्तमान कविता के रसात्मकबोध का हमारे पास कोई मापक नहीं। इसका सीधा.सीधा कारण यह है कि वर्तमान कविता में सामान्यतः उन रसों की निष्पत्ति नहीं होती, जो हमारे पूर्ववर्ती रसाचार्यों द्वारा गिनाये गये हैं। और हम नये रसों की खोज करने में आजतक सामर्थ्यवान नहीं हो पाये हैं। इसलिये अपनी खीज मिटाने के लिये हम तपाक से एक जुमला उछाल देते हैं कि-वर्तमान कविता तो विचार प्रधान कविता है | इसमें भावोद्बोधन का मधुर प्लावन कहां ? वर्तमान कविता को विचार प्रधान कविता सिद्ध करने वालों की महान रसात्मक बुद्धि को पता ही नहीं कि भाव विचार की ऊर्जा होते हैं।
    विचार के बिना भाव का निर्माण किसी प्रकार न पहले सम्भव था और न अब है। यदि परशुराम की ज्ञानेन्द्रियों को यह विचार न उद्वेलित करता कि राम ने शिव का धनुष तोड़ दिया है, तो कैसा क्रोध और किस पर क्रोध। यदि रावण को यह विचार न मंथता कि लक्ष्मण और राम ने उसकी बहिन सूपनखा को अपमानित किया है, तो क्रोध के चरमोत्कर्ष के कैसे होते रावण में दर्शन। यदि राम के मन को यह विचार न स्पर्श न करता कि उनके अनुज को मेघनाद ने मूर्छित कर दिया है और यदि समय रहते चिकित्सा न हुई तो लक्ष्मण का प्राणांत हो सकता है, तो कैसा विलाप,  कैसा शोक।
    अस्तु! विचार के बिना किसी भी प्रकार के भाव का निर्माण सम्भव नहीं। यदि भावोद्बोधन नहीं तो कैसी रसनिष्पत्ति और कैसा रस ? जब रस का मूल आधार विचार ही है तो हम आज की कविता को मात्र वैचारिक कहकर रस के मूल प्रश्न से किनारा कर ही नहीं सकते। इसलिये जरूरी है कि यदि वर्तमान कविता पूर्ववर्ती रसाचायों द्वारा गिनाये गये रसों के आधार पर परखी नहीं जा सकती तो कुछ नये रसों को खोज की जानी चाहिए। वैसे भी यह कोई अप्रत्याशित और अरसात्मक कदम नहीं होगा | क्योंकि आचार्य भरतमुनि द्वारा गिनाये रसों में भी शांतरस, भक्तिरस जैसे कई रसों की बाद में जोड़ा गया है।
    बात चूंकि नवें दशक की कविता के संदर्भ में चल रही है तो मैं यह निवेदन कर दूं कि नवें दशक की कविता की चर्चित विधा ‘तेवरी’ में मैंने अपनी पुस्तक ‘तेवरी में रससमस्या और समधान’ में  दो नये रस विरोधरस और विद्रोहरस की खोज की है जिनके स्थायी भाव क्रमशः ‘आक्रोश’ और ‘असंतोष’ बताये हैं। वर्तमान कविता जिन वैचारिक प्रक्रियाओं से होकर गुजर रही हैए ‘तेवरी’ भी उसी वैचारिक प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग है। अतः यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि तेवरी में जिन रसों का उद्बोधन होता है, वही रस वर्तमान कविता में भी उद्बोधित होते हैं।
    कविता में विरोध और विद्रोह रस की निष्पत्ति किस प्रकार और कैसे होती है, इसे समझाने के लिये ‘नवें दशक’ की कुछ कविताओं के उदाहरण प्रस्तुत हैं-
1. विरोध रस-इस रस का मुख्य आलम्बन वर्तमान व्यवस्था या उसके वह अत्याचारी शोषक और आतातायी पात्र हैं, जो शोषित और पीडि़त पात्रों को अपना शिकार बनाते हैं। आलम्बन के रूप में वर्तमान व्यवस्था या उसके पात्रों के धर्म अर्थात् आचरण को देखकर या अनुभव कर दुखी शोषित त्रस्त पात्र जब अपने मन में लगातार त्रासदियों को झेलते हुए यह विचार लाने लगते हैं कि वर्तमान व्यवस्था बड़ी ही बेरहम, अलोकतांत्रिक और गरीबों का खून चूसने वाली व्यवस्था है, तो यह विचार अपनी ऊर्जस्व अवस्था में अपने चरमोत्कर्ष पर ‘आक्रोश’ को जन्म देता है। विभिन्न प्रकार की वैचारिक प्रक्रियाओं से गुजरकर बना यह स्थायी भाव ही ‘विरोध’ को रस की परिपक्व अवस्था तक ले जाता है-
‘उत्तर प्रदेश की हरिजन कन्या हो
या महाभारत की द्रौपदी
दोनों में से किसी का अपमान देखने वाला
चाहे वह भीष्म पितामह हो
या गुरु द्रोणाचार्य या चरणसिंह
मेरे लिये धृतराष्ट्र ही हैं।‘
    ‘विरोध’ शीर्षक से साहित्यिक पत्रिका ‘काव्या’ के अप्रैल.जून.90 [सं- हस्तीमल हस्ती] में प्रकाशित श्री विश्वनाथ की उक्त कविता का यदि हम रसात्मक विवेचन करें तो इस कविता में उत्तर प्रदेश की हरिजन कन्या या महाभारत में हुए द्रौपदी के अपमान को सुनकर, देखकर या अनुभव कर आश्रय रूपी कवि का मन मात्र ऐसे धृतराष्ट्रों के प्रति ही आक्रोश से सिक्त नहीं होता जो आंखों से अंधे हैं। उसके मन में ऐसी वैचारिक ऊर्जा सघन होती है जो भीष्म पितामह से लेकर गुरु द्रोणाचार्य, यहां तक कि  किसान नेता चरणसिंह के प्रति भी ‘आक्रोश’ को जन्म देती है। कारण-कवि के मन में यह विचार कहीं न कहीं ऊर्जस्व अवस्था में है कि धृतराष्ट्र की तरह ही सब के सब नारी अपमान के प्रति आंखें मूदे रहे हैं। ‘नारी अपमान को अनदेखा करने का यह विचार’ कवि को जिस आक्रोश से सिक्त कर रहा है, यह आक्रोश ही विरोधरस का वह परिपाक है, जिसकी रसात्मकता आत्मीयकरण की स्थिति में सुधी पाठकों को आक्रोश से सिक्त कर धृतराष्ट्रों के विरोध की और ले जायेगी।
2. विद्रोह रस- विरोधरस का मूल आलम्बन भी व्यवस्था और उसके वह पात्र होते हैं जो शोषित दलित पात्रों की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरते। उनकी सुविधाओं पर ध्यान नहीं देते। परिणामतः मेहनतकश, दलित, शोषित वर्ग में ‘असंतोष’ के ज्वालामुखी सुलगने लगते हैं। ‘असंतोष’, ‘विद्रोह रस’ का स्थायी भाव है। इसके संचारी भावों में दुख, अशांति, क्षोभ, आक्रोश, खिन्नता, उदासी आदि माने जा सकते हैं। इस रस के मुख्य अनुभाव-अवज्ञा, ललकार, चुनौती, फटकार आदि हैं-
तुहमतें मेरे न सर पर दीजिए
झुक न पायेगा कलम कर दीजिए।
सत्य के प्रति और भी होंगे मुखर
आप कितने भी हमें डर दीजिए।
    वर्ष 1988 में प्रकाशित दर्शन बेजार के तेवरी संग्रह-दे श खंडित हो न जाए’ की उपरोक्त ‘तेवरी’ का यदि रसात्मक विवेचन करें तो सत्य और  ईमानदारी की राह पर चलने वाले एक सच्चे इन्सान की यह व्यवस्था उसे इस मार्ग को डिगाने के लिये मात्र डराती-धमकाती ही नहीं, उसका खात्मा भी कर देने चाहती है। ऐसी स्थिति में वह ऐसी घिनौनी व्यवस्था से कोई समझौता कर संतोष या चैन के साथ चुप नहीं बैठ जाता, बल्कि संघर्ष करता है, उसे ललकारता है। कुल मिलाकर उसके मन में व्यवस्थापकों के प्रति ऐसा ‘असंतोष’ जन्म लेता है, जो खुलकर ‘विद्रोह’ में फूट पड़ता है। भले ही उसका सर कलम हो जाये लेकिन वह कह उठता है कि ‘सत्य के प्रति ऐसे हालातों में मुखरता और बढ़ेगी’। व्यवस्थापकों के प्रति ‘असंतोष’ से जन्य यह अवज्ञा और चुनौती से भरी स्थिति ‘विद्रोह’ का ही रस परिपाक है।
    नवें दशक की कविता को समझने के लिये आवश्यक है कि हम निम्न तथ्यों को भी समझने का प्रयास करें कि भाव विचार से जन्य ऊर्जा ही होते हैं। यदि कवि के मन में यह विचार न आया होता कि ‘उत्तर प्रदेश में हरिजन कन्या के साथ अत्याचार हुआ है और महाभारत काल में द्रौपदी का अपमान’ तो उसके मन में आक्रोश का निर्माण किसी प्रकार सम्भव न था। दूसरी तरफ वह निर्णय न लेता कि ‘नारी अपमान को अनदेखा करने वाले भी अंधे घृतराष्ट्र से कम अपराधी नहीं होते’। तभी तो वह भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य या राजनेता चरणसिंह को धृतराष्ट्र की श्रेणी में रखता है। उपरोक्त विवेचन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि रस की निष्पत्ति आलम्बन से नहीं, आलम्बन के धर्म से होती है। यदि द्रोणाचार्य, भीष्म पितामह या चरण सिंह ने नारी अपमान के प्रति अपना विरोध प्रकट किया होता या धृतराष्ट्र के नारी अपमान न होने दिया होता तो कवि के मन में आक्रोश की जगह इन्हीं पात्रों के प्रति श्रद्धा जाग उठती।
    काव्य का सम्बन्ध जब दर्शक पाठक या श्रोता से जुड़ता है तो यह कोई आवश्यक नहीं कि उसमें उसी प्रकार के रस की निष्पत्ति हो जो काव्य के पात्रों में या काव्य में अन्तर्निहित है। इसके लिये जरूरी है कि पाठक, दर्शक, श्रोता का आत्म भी ठीक उसी प्रकार का हो जो कवि की आत्माभिव्यक्ति से मेल खाता है। इसी कारण मैं काव्य में साधारणीकरण नहीं, आत्मीयकरण की सार्थकता को ज्यादा सारगर्भित मानता हूं। यह आत्मीयकरण के कारण ही है कि तुलसी के काव्य के प्रति सारी सहृदयता को उड़लने वाले आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, आचार्य केशव के प्रति इतने हृदयहीन क्यों हो जाते हैं कि उन्हें काव्य का प्रेत कह डालते हैं। जबकि डॉ. विजयपाल सिंह में केशव के प्रति कथित सहृदयता का तत्त्व साफ-साफ झलकता है।
    इसलिये नवें दशक की कविता को रसाभास का शिकार बनाने से पूर्व इसमें अन्तर्निहित इन दो नये रसों के साथ-साथ हमें  साधारणीकरण के मापकों को त्यागकर ‘आत्मीयकरण’ का नया मापक लेना ही पड़ेगा, तभी नवें दशक की कविता का रसात्मक आकलन हो सकता है।
------------------------------------------------------------------------
+रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001

मो.-9634551630       

Friday, June 24, 2016

काव्य की आत्मा और रस +रमेशराज



               Rameshraj

काव्य की आत्मा और रस

+रमेशराज
.............................................................
    आचार्य भरतमुनि रस के प्रवर्त्तक माने जाते हैं | उन्होंने रस को ‘ नाटक का अनिवार्य धर्म ‘ के रूप में स्वीकारा है | भाव, संचारी भाव, अनुभाव और स्थायी भाव के सहारे स्थापित की गयी इस रस की सत्ता को आगे आने वाले रस आचार्यों ने भी स्वीकार करते हुए रस को काव्य का एक अनिवार्य और सर्वोपरि प्रयोजन माना | तथा रस के बारे में कहा कि रस के सम्पर्क से प्रचलित अर्थ उस प्रकार आभासित होने लगते हैं, जिस प्रकार वसंत-सम्पर्क में द्रुम-
        दृष्टपूर्वा अपि ह्यार्था: काव्ये रस परिग्रहात
        सर्वे नवा इवाभान्ति मधुमास इव द्रुमाः | 1
    आनन्दवर्धन, मम्मट, कुंतक आदि रस के बारे में निष्कर्ष यह रहा है कि –
1.रस काव्य का अमृत एवं अन्तस् चमत्कार का वितानक होता है | 2
2.रस काव्य का सर्वोपरि प्रयोजन है | 3
3.रस सब अलंकारों का जीवित ‘ रसवत् अलंकार ‘ है | 4     
महिमभट्ट एवं आचार्य विश्वनाथ ने अपने पूर्ववर्त्ती एवं सम्वर्त्ती आचार्यो के मतों के अनुसार एवं अपने तर्कों के सहारे रस को काव्य की आत्मा घोषित करते हुए अपने अभिमत इस प्रकार प्रस्तुत किए-
“काव्य स्यात्मिन संगिनि.....रसादिरूपे न कस्यचिद विभति“ अथवा “ वाक्यं रसात्मक काव्यं ” |
 काव्य में रस की स्थिति या अस्तित्व के बारे में दिए गये उक्त तथ्यों के आधार पर रस को ही काव्य की आत्मा मान लेने में ऐसी अनेक दिक्कतें हैं, जिनका समाधान आवश्यक है-
1.यदि रस काव्य का अनिवार्य एवं सर्वोपरि प्रयोजन ही है तो सामाजिकों को रस तो अश्लील , गैर साहित्यिक, फूहड़ और विकृत कृतियों में भी आता है, तब इस प्रकार की रस-व्याख्याओं के आधार पर क्या काव्य की आत्मा के सत्-रूप के जीवंत बनाये रखा जा सकता है ? इस तरह काव्य की आत्मा भी विकृत और अश्लील नहीं हो जाएगी ?
2. यदि रस के सम्पर्क से ही प्रचलित अर्थ ठीक उसी प्रकार आभासित जिस प्रकार वसंत के सम्पर्क में द्रुम, तब काव्य के आस्वादक के रूप में एक कथित ‘ सहृदय ‘ की आचार्यों ने किसलिए खोज की ? यदि रस में ही इतनी शक्ति या प्रभावोत्पकता है, तो एक ही काव्य-सामग्री के प्रति विभिन्न आस्वादक रससिक्त होने के साथ-साथ रसहीनता की ओर क्यों जाते हैं | बिहारी का काव्य मार्क्सवादियों को फीका क्यों महसूस होता है | आचार्य शुक्ल केशव को काव्य का प्रेत क्यों बताने लगते हैं ?
    सच तो यह है रस का अमृत, अन्तस् चमत्कार का वितानक एवं सर्वोपरि प्रयोजन तभी जान पड़ता है, जबकि जिस काव्य-सामग्री का हम आस्वादन कर रहे होते हैं, वह आस्वादन        सामग्री हमारे रागात्मक मूल्यों से मेल खाती महसूस होती हो  अर्थात् जब काव्य-सामग्री में व्यक्त किये गये रागात्मक मूल्य हमारे रागात्मक मूल्यों से मेल खाते अनुभव तभी काव्य से ग्रहण किया गया रागात्मक अर्थ इस प्रकार आलोकित होता है जैसे वसंत के सम्पर्क में द्रुम |
    एक नारी-भोग में लिप्त में लिप्त रहने वाले सामाजिक को ऐसे काव्य से ही रस या आनन्द की प्राप्ति हो सकती है, जो वासना, आलिंगन, चुम्बन, विहँसन आदि का ब्यौरेबार बिम्ब प्रस्तुत करता हो | जबकि नारी-भोगविलास को व्यभिचार की श्रेणी में रखने वाले आस्वादक को ऐसी रसात्मकता शायद ही प्राप्त हो जो एक कथित रसिक को आनन्दित करती है | इन दोनों अवस्थाओं का सम्बन्ध हमारे उन रागात्मक मूल्यों से है, जिनके द्वारा हमारे आत्म अर्थात् रागात्मक चेतना का निर्माण होता है और जिन्हें हम काव्य में सीधे-सीधे देखना या अनुभव करना चाहते हैं |
    रस को ही अन्तस् चमत्कार का वितानक और काव्य का सर्वोपरि प्रयोजन मानने से पूर्व हमें यह अवश्य सोचना पड़ेगा कि क्या हम नारी के रूप में माँ बहिन बेटी आदि के साथ वही रसात्मकबोध या आनन्दावस्था ग्रहण नहीं कर सकते, जो कि एक प्रेमिका या पत्नी के साथ सम्भव है | हमारे विचार से नहीं | इसका मूल कारण हमारी रागात्मक चेतना की वह मूल्यवत्ता अवश्य है जो आत्म के रूप में विभिन्न प्रकार के सम्बन्धों के प्रति विभिन्न के व्यवहार करती है | यही विभिन्न प्रकार की रागात्मक दृष्टियाँ काव्य से लेकर लोक-जीवन के रसात्मकबोध को भिन्न-भिन्न तरीके से भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में आलोकित करती है | अतः काव्य की आत्मा रस सिद्ध करने से पूर्व हमें इस बिंदु पर आकर अवश्य विचार करना पड़ेगा कि ‘ काव्य का सम्पूर्ण क्षेत्र हमारा समाज या लोक के प्रति रागात्मक सम्बन्धों का क्षेत्र है, जिसमें विभिन्न प्रकार की रागात्मक चेतना शक्ति या दृष्टि ही हमें विभिन्न प्रकार के रसात्मक बोधों की ओर ले जाती है |
    रति को ही लीजिये- इसके द्वारा शृंगार रस की निष्पत्ति होती है | यदि हम इसका सूक्ष्म विवेचन करें तो रति-वात्सल्य, भक्ति, करुणा के मूल में भी रहती है | लेकिन इन सब के रसात्मक बोध में अंतर उत्पन्न करने में महत्वपूर्ण भूमिका हमारी रागात्मक चेतना या दृष्टि ही होती है | यदि नायक-नायिका शारीरिक भोग के प्रति आकर्षित होने वाले प्राणी हैं तो उनके मन में उत्पन्न होने वाली रति शृंगार का आधार बनेगी | यदि नायक-नायिका समाज या एक-दूसरे के प्रति दुःख-दर्दों में हिस्सेदारी तय करने वाले प्रेमी हैं तो दोनों में उद्बुद्ध रति  करुणा के चरमोत्कर्ष को दर्शाएगी | ठीक इसी प्रकार यदि माँ-बेटी या बेटे की सुखात्मक अनुभूतियों से सिक्त हैं तो इन सम्बन्धों के बीच उद्बुद्ध रति का चरमोत्कर्ष ममत्व और वात्सल्य में अनुभावित होगा | स्वामी और सेवक के बीच के रागात्मक सम्बन्ध रति को भक्ति या दास के रूप में आलोकित करेंगे | भाई-भाई , बहिन-भाई आदि के रागात्मक सम्बन्धों की रति भी किसी न किसी रसात्मक बोध को दर्शाती है, किन्तु यह रस-तालिका अभी तक रिक्त है |
    रति से सम्बन्धित उक्त व्याख्या के माध्यम से हम सिर्फ और सिर्फ यह कहना चाहते हैं कि-     
1.   काव्य के सन्दर्भ में राग काव्य का वह मूल प्राण है, जिसके अभाव में काव्य या तो कोरा संकेत बन कर रह जाता है या लोक-व्यापार की वह शृंखला टूट जाती है, जो मनुष्य से मनुष्य के बीच प्रेम, भाईचारे आदि को जन्म देती है |
2.   काव्य में रस की स्थिति अंततः इस तथ्य पर निर्भर है कि आश्रय और आलम्बनों के रागात्मक सम्बन्ध किससे और किस प्रकार के हैं |
अपने  पुत्रों के हत्यारे पांडवों को यदि गांधारी अंत तक घृणा और क्रोध का पात्र नहीं बना पाती है तो इसके मूल में गांधारी की वह रागात्मक चेतना है जो सत् और असत् में अंतर करना ही नहीं जानती, बल्कि उसे यह भी ज्ञान है कि अति स्वार्थी, अहंकारी, दम्भी और नारी-जाति का अपमान करने वाले वर्ग का एक न एक दिन यही हश्र होता है, उस वर्ग में ही उसके पुत्र आते हैं |
  इसके विपरीत धृतराष्ट्र की रागात्मक चेतना सत् के आभाव में ऐसी रागात्मक चेतना बनकर उभरती है जो अंत तक पुत्र-मोह में जकड़ी रहकर भीम का छल-कपट से वध करने को आतुर रहती है |
  अर्थ यह कि काव्य के हर पात्र में रसोद्बोधंन उसकी अपनी रागात्मक चेतना के अनुरूप ही होता है | यदि अयोध्या नरेश श्री राम की रागात्मकता का विषय जन-भावना न रहकर केवल सीता ही रही होती तो यह सम्भव नहीं था कि एक धोबी की उलाहना पर वे सीता का वनवास तय कर देते |
3.   रस के स्थान पर राग को काव्य का सर्वोपरि प्रयोजन तभी माना जा सकता है जबकि राग में सत् तत्त्व मौजूद हो | वरना जिस प्रकार रस को अन्तस् चमत्कार का वितानक, ब्रह्म-सहोदर, अमृत स्वरूप मानकर काव्य को भोगविलास, व्यभिचार आदि में डालते आ रहे हैं, इसी प्रकार के खतरे राग के साथ भी उपस्थित होंगे |
अतः ‘राग’ काव्य का मूल प्राण होने के बावजूद काव्य की आत्मा तभी बन सकता है, जबकि उसमें सत्योंमुखी चेतना अंतर्निहित हो |
4.   काव्य के सन्दर्भ में राग जब सत्योन्मुखी चेतना से युक्त होता है तो उसका रसोद्बोधन कोरी आनंदोपलब्धि या मनोरंजन मात्र का साधन न रहकर ऐसी रसात्मकता का परिचय देता है जिसका बीजरूप आचार्य शुक्ल के अनुसार ‘ करुणा ‘ ठहरता है | काव्य को जो चिंतक लोकमंगल से जोड़कर नहीं देखते, ऐसे विद्वान रस, अलंकार, ध्वनि, रीति आदि को भले ही ‘ काव्य की आत्मा ‘ घोषित करने के लाख प्रयास करें, किन्तु इन सब तथ्यों की सार्थकता काव्य में अंतर्निहित ‘ सत्योन्मुखी रागात्मक चेतना ‘ के बिना संदिग्ध और सारहीन ही मानी जाएगी |                
------------------------------------------------------------------

+ रमेशराज, 15/109, ईसानगर, निकट-थाना सासनीगेट, अलीगढ़-202001         mob.-9634551630    

Friday, May 6, 2016

काव्य की आत्मा और सात्विक बुद्धि +रमेशराज




काव्य की आत्मा और सात्विक बुद्धि

+रमेशराज
----------------------------------------------------------------

आचार्य भोज काव्य के क्षेत्र में आत्मा को अनावश्यक मानते हुए ‘सात्विक बुद्धि की स्थापना करते हैं। सात्विक अर्थात् दूसरों के सुखदुख में प्रविष्ट हो सकने की सामर्थ्य  वाली मानव चेतना |’’ [1]
इस प्रकार देखें तो आचार्य भोज काव्य की आत्मा के रूप में ‘सात्विक बुद्धि’ की स्थापना कर एक तरफ जहां रस को ‘गूंगे के गुड़ का स्वाद’ होने से बचाया, वहीं अलंकार ध्वनि, वक्रोक्ति आदि की काव्य में आत्मरूप से प्रतिष्ठित कराये जाने वाली अतिशयता का खुलकर विरोध किया। आचार्य क्षेमेन्द्र के ‘औचित्य सिद्धान्त’ को संशोधित कर आचार्य भोज ‘सात्विक बुद्धि’ को काव्य में जो आत्म प्रतिष्ठा दी, वह हर प्रकार प्रंशसनीय इसलिये है क्योंकि ‘सात्विक बुद्धि’ में ही वह सामर्थ्य होती है, जो सत्-असत्, अंधेरे -उजाले, शोषक-शोषित, अत्याचारी-पीडि़त में मात्र अन्तर ही नहीं करती, वह असत् से सत् की, अंधेरे से उजाले की, शोषक से शोषित और अत्याचारी से पीडि़त की रक्षा करने में हर प्रकार सहायक होती है। लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं है कि ‘काव्य की आत्मा ‘सात्विक बुद्धि’ को ही मान लिया जाये। आचार्य भोज इस बात पर कोई बल भी नहीं देते। दरअसल ‘सात्विक बुद्धि’ को प्राणवत्ता तो सत्योन्मुखी रागात्मक चेतना ही प्रदान करती है। सत्, शोषित, पीडि़त से जब तक हमारे सम्बन्ध रागात्मक नहीं होंगे, तब तक इनके प्रति न तो किसी प्रकार की रमणीयता का उदय होना सम्भव है और न मन के भीतर प्रेम का संचार हो सकता है। अतः यह कहना असंगत न होगा कि दूसरों के सुख-दुःख में प्रविष्ट कराने की सामर्थ्य वाली मानवचेतना, बिना रागात्मक के या तो तटस्थ हो जायेगी या अपनी मूल सामर्थ्य को ही खो बैठेगी।
जिस प्रकार रस का निर्णय अन्ततः अर्थनिर्णय पर निर्भर है,[2] उसी प्रकार रागात्मकता भी हमारे वैचारिक निर्णयों की देन होती है। हम यकायक ही किसी से प्रेम नहीं कर बैठते और न किसी के प्रति विद्रोह। जो वस्तु हमारे आत्म अर्थात् रागात्मक चेतना को तोष प्रदान करती हैं उनके प्रति हम में रमणीयता बढ़ जाती है। जो वस्तुएं हमारे आत्म को असंतोष या असुरक्षा से अनुभूत करती हैं, उनके प्रति हम स्वभाव से विद्रोही हो जाते हैं। इस प्रकार हमारी रागात्मकता का चक्र बुद्धि या चेतना के सहारे आत्मसुरक्षा या आत्मतोष के इर्दगिर्द घूमता हुआ आगे बढ़ता है।
आचार्य भोज रस को अपने तात्विक रूप में अहंकार मानते हैं। और अहंकार के व्यक्त रूप को अभिमान।’’[3] अहंकार अर्थात स्वगत रागात्मक चेतना। स्वगत रागात्मक चेतना जब शेष सृष्टि के साथ रागात्मक सम्बन्ध स्थापित करती है तो उसकी रसात्मकता मात्र रत्यात्मक ही नहीं होती, वह कभी वात्सत्यात्मक बनती है तो कभी ममत्व भरी होती है तो कभी उसका रूप श्रद्धात्मक हो जाता है। इस प्रकार स्व से घनीभूत रागात्मकता ‘पर’ की समाविष्टि बन जाती है। स्व से ‘पर’ की ओर जाने की रागात्मक क्रिया जब अधोमुखी होती है तो मोह, लालासा, लिप्सा, कुंठा, व्यक्तिवाद, दुराचार, व्यभिचार और स्वार्थ को जन्म देती है। स्व से पर की ओर जाने की रागात्मक क्रिया जब सात्विक होती है तो समस्त जगत् से प्रेमपरक सम्बन्ध स्थापित ही नहीं करती, जगत् के प्राणियों पर आये संकट, दुखादि के प्रति करुणाद्र भी होती है। लोक को संकट में डालने वाले कारकों के प्रति विरोध और विद्रोह की रसात्मकता में सघन होती है।
आचार्य भोज कहते हैं कि ‘‘अहंकार या अभिमान को  ‘ शृंगार’ भी कहते हैं क्योंकि इसमें मनुष्य को परिष्कृति के उच्चतम  शृंग़ पर ले जाने की क्षमता होती है।[4]
इस प्रकार हम देखते हैं कि भोज ने शृंगार को नयी व्यापकता, सार्वभौमिकता ही प्रदान नहीं की, उन्होंने अहंकार को एक नूतन ऊर्जा भी दी, जिसमें दूसरों की रागात्मकता को परिष्कृत रूप में द्रवित कर अपने में समाहित कर लेने की अपार क्षमता अन्तर्निहित रहती है।
अहंकार अर्थात् स्वगत् रागात्मक चेतना, परगत रागात्मक चेतना को किस प्रकार परिष्कृत द्रवित करती है और अन्त में अपने में समाहित कर लेती है, इसको समझाने के लिये यहां एक उदाहरण देना आवश्यक है।
‘‘वह मरा कश्मीर के
हिमशिखर पर जाकर सिपाही
बिस्तरे की लाश तेरा
और उसका साम्य क्या है
पीढि़यों पर पीढि़यां उठ
आज उसका गान करतीं’’
       +माखनलाल चतुर्वेदी
कवि ने इस कविता में एक ऐसे सिपाही का वर्णन किया है जिसकी रागात्मकता में समूचे राष्ट्र की रक्षा की कामना रची-बसी है। राष्ट्र की रक्षा करते हुए वह कश्मीर के हिमशिखर पर अपने प्राणों की आहुति दे देता है। सिपाही के इस वीरकर्म को पढ़-सुन या देखकर समूचा राष्ट्र उस पर गौरव अनुभव करता है और उसके प्रति श्रृद्धानत् हो उठता है। कवि ऐसे में बिस्तर पर पड़ी उस लाश को धिक्कारता है, जिसका राष्ट्ररक्षा से कोई वास्ता नहीं रहा है अर्थात् जिसकी रागात्मक चेतना ‘मैं’ से उत्पन्न होकर सिर्फ ‘मैं’ में ही विलीन हो गयी है।
इन पंक्तियों को यदि हम आचार्य भोज की मान्यताओं के संदर्भ में व्याख्यायित करें तो कश्मीर के हिमशिखर पर राष्ट्र के लिये प्राण न्यौछावर करने वाले सिपाही के अहंकार या स्वाभिमान में राष्ट्रीय रागात्मकता इस तरह द्रवित होकर घुलमिल गयी है कि सिपाही अपने आप में एक राष्ट्र बन गया है। कविता में दूसरी स्थिति राष्ट्रीय रागात्मकता से सिक्त उन राष्ट्रवासियों की है, जिनका अहंकार या स्वाभिमान अर्थात् ‘स्व’, सिपाही के रागात्मक उत्सर्ग को अपने भीतर गर्व और श्रृद्धा के साथ द्रवित कर लेता है। कविता में तीसरी स्थिति स्वयं कवि की है जो वीरगति को प्राप्त सिपाही के प्रति श्रद्धानत तो है ही, साथ ही ऐसे व्यक्तियों के अहंकार या स्वाभिमान को दुत्कारता या धिक्कारता है जिनकी रागात्मकता स्वार्थ के वशीभूत होकर भोग- विलास में ही अपनी जीवन-लीला समाप्त कर देती है।    इस कविता का सृजन निस्संदेह कवि की ‘सात्विक बुद्धि’ ने किया है, जिसमें सत्योन्मुखी रागात्मक चेतना अन्तर्निहित है।
माखनलाल चतुर्वेदी की इस कविता से एक नया तथ्य और उजागर होता है कि विभाव अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से मात्र उसी तारीके की रसोत्पत्ति नहीं होती जैसा कि रसाचार्य अब तक कहते चले आ रहे हैं, बल्कि रसोत्पत्ति का सम्बन्ध सीधे-सीधे हमारे निर्णयों से है। सिपाही की मृत्यु पर स्थायी भाव शोक का निर्माण होना चाहिए, जबकि उक्त कविता में आश्रय श्रृद्धा और गर्व की ऊर्जा से आद्र होकर सिपाही के वीरकर्म का गुणगान कर रहे हैं। मृत्यु का शोक उनसे कोसों दूर है।
बहरहाल ‘स्व’ के भीतर ‘पर’ की समाविष्ट का मतलब ‘पर’ का उदात्त रूप में ‘स्व’ हो जाना भी है। इस प्रसार ‘स्व’ समूची मानव चेतना तक विस्तार पा जाता है। यही काव्य की सात्विक बुद्धि है और सात्विक बुद्धि की सत्योन्मुखी रागात्मक चेतना और इसी का सीधा-सीधा सम्बन्ध काव्य की आत्मा से है।
सन्दर्भ-
1.– रससिद्धांत, डॉ. चतुर्वेदी, पृष्ठ-112
2. कविता के नये प्रतिमान, डॉ. नामवर सिंह
3.रस सिद्धांत, डॉ. ऋषिकुमार चतुर्वेदी, पृष्ठ-121
4.भोज शृंगार प्रकाश, पृष्ठ-465         
--------------------------------------------------------------
रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001

मो.-9634551630

काव्य की आत्मा और औचित्य +रमेशराज




काव्य की आत्मा और औचित्य

+रमेशराज
-----------------------------------------------------------------

डॉ. नगेन्द्र अपनी पुस्तक ‘आस्था के चरण’ में लिखते हैं कि काव्य के विषय में और चाहे कोई सिद्धान्त निश्चित न हो, परन्तु उसकी रागात्मकता असंदिग्ध है।... कविता मानव मन का शेषसृष्टि के साथ रागात्मक सम्बन्ध स्थापित करती है।’’
डॉ. ऋषि कुमार चतुर्वेदी का मानना है कि कविगत और सहृदयगत रस को लें-इस रस पर तात्त्विक रूप में तो हृदय की वह आद्रता और रागात्मकता है जिससे भावों का जन्म होता है।’[1]... जहां कोई चित्रावृत्ति कवि हृदय की गहन रागात्मकता से जन्म लेती है, वहां उसका ध्वन्यात्मक रूप ग्रहण कर लेना स्वाभाविक है।[2] वस्तुतः रस कोई निरपेक्ष वस्तु नहीं है वह किसी विशेषयुग के जनमानस की नैतिक और रागात्मक धारणाओं से निर्मित होता है। उन धारणाओं पर आधारित कथा में रस सिद्ध हुआ रहता है। यही सिद्ध  रस का अर्थ है।[3] ऐतिहासिक कथानक और पात्रों पर बल देने का एक कारण तो यही है कि वे भारतीय मानस की नैतिक वृत्ति को संतोष देने में समर्थ हैं, दूसरे यह कि युगों से अपना अस्तित्व प्राप्त करते रहने के कारण वे भारतीय जनमानस की रागात्मकता में जम गये हैं। अतः स्वभाव से ही रसावह हैं। युंग जैसे मनौवैज्ञानिक ने भी पौराणिक पात्रों के रागात्मक प्रभाव को मुक्तकंठ से स्वीकार किया।[4]
आचार्य आनंदवर्धन कहते हैं कि ‘‘कोई ऐसी वस्तु नहीं जो रस का अंग भाव प्राप्त नहीं करती?’’ उनके अनुसार-‘‘रसादि चित्तवृत्तियां विशेष ही हैं और कोई ऐसी चित्तवृत्ति वस्तु नहीं जो चित्तवृत्तियों को उत्पन्न किये बगैर काव्य का विषय बन जाये। अतः कोई ऐसा काव्य प्रकार भी सम्भव नहीं जिसमें रस किसी न किसी रूप में विद्यमान न हो।[5] इसके लिये कवि का रागी होना आवश्यक है क्योंकि वह रागी हुए बिना किसी भी चित्तवृत्ति को उत्पन्न करने वाली वस्तु की चयन नहीं कर सकता। [6]
डॉ. नामवर सिंह लिखते हैं कि-‘‘ रागात्मक सम्बन्धों  के बिना रागात्मक वृत्तियों की कल्पना निराधार है....मनुष्य के अन्तर्राष्ट्रीय और अन्तवैश्विक सारे सम्बन्ध रागात्मक सम्बन्धों की कोटि में आते हैं और रागात्मक वृत्तियों के समान ही ये रागात्मक सम्बन्ध भी काव्य के अंन्तरंग हैं।[7] रागात्मक समृद्धि वहां है जहां वास्तविक स्थितियों से गुजरते हुए जागरूक मानव मन की अधिक से अधिक जीवंतता मूर्तिमान हुई है और जहां जीवन की वास्तविकता को देखने के लिये कोई ‘विजन’ मिलता है।[8]
विभिन्न विद्वानों द्वारा रागात्मकता के बारे में दिये गये उक्त बयानों से स्पष्ट है कि-
1. काव्य में रागात्मकता की स्थिति असंदिग्ध ही नहीं बल्कि इसी रागात्मकता से रस, ध्वनि, चित्तवृत्तता आदि का जन्म होता है।
2. जो मूल्य या निर्णय संस्कार रूप में रागात्मकता में रच-बस जाते हैं, वे स्वभाव से ही रसमय हो जाते हैं।
3. रागात्मकता ही वह मूलभूत प्राणतत्त्व है जिसके द्वारा मानव मन शेष सृष्टि के साथ मधुरिम और रसात्मक सम्बन्ध बनाता है। मानव मन की जीवंतता को मूर्तिमान करने में या जीवन की वास्तविकता को देखने-परखने या समझने के संदर्भ में रागात्मकता जैसे अनिवार्य तत्त्व की असंदिग्ध भूमिका को समझना आवश्यक ही नहीं परमावश्यक है। इस दृष्टि को प्राप्त करने के लिये कवि का सहृदय और रागी होना जरूरी है।
अतः यह कहना अनुचित न होगा कि राष्ट्रीय, सांस्कृतिक या मानवीय जीवन की दिव्य समृद्धि, रागात्मक समृद्धि के बिना किसी प्रकार सम्भव नहीं। लेकिन इसके लिये रागात्मकता का सत्योन्मुखी चेतना से युक्त होना आवश्यक है | अगर रागात्मकता सत्योन्मुखी चेतना से युक्त होगी तो आचार्य शुक्ल शब्दों में-‘‘भीषणता में भी अद्भुत मनोहरता, कटुता में भी अपूर्व मधुरता और प्रचण्डता में भी गहरी आद्रता के काव्य में दर्शन होंगे। यही नहीं काव्य से धर्म और मंगल की ज्योति अमंगल और अधर्म की घटा को फाड़ती हुई निकलेगी।’’
 इसलिये आनंदवर्धन अगर सम्पूर्ण रस-व्यवस्था का मेरूदंड औचित्य को मानते हैं तो कोई अटपटी बात नहीं कहते। ‘औचित्य विचार चर्चा’ के रचयिता आचार्य क्षेमेंद्र भी अभिव्यक्ति को तभी सरस मानते हैं जबकि काव्य द्वारा सम्प्रेषित अनुभूति जाति और युग के सांस्कृतिक आदर्शों, नैतिक मान्यताओं एवं मूल्यों से अनुशासित हो।’’
दरअसल आनंदवर्धन और आचार्य क्षेमन्द्र औचित्य के माध्यम से रागात्मकता को सत्योन्मुखी चेतना से युक्त बनाने पर ही बल देते हैं। अगर रागात्मकता सत्तत्त्वमय होगी तो उसका रसात्मकबोध सामाजिकों को लोकमंगल और लोकरक्षा के संस्कारों के लिये अभिप्रेरित करेगा। अतः कवि का रागी होना तो आवश्यक है परन्तु उसकी रागात्मकता यदि सत् तत्वमय नहीं है तो कवि के द्वारा निर्मित काव्यसंसार जीवन की वास्तविक स्थितियों को उजागर करने में असमर्थ ही नहीं हो जायेगा, उससे व्यक्तिवादी, रूढि़वादी लिजलिजे वाह्य सौन्दर्य की ध्वन्यात्मकता मुखर होगी। इस तरह की रागात्मकता हर प्रकार से मानवीय जीवन की रागात्मकता को ही विखंडित करेगी। रहीम ने सही कहा है कि-
कहि रहीम कैसे निभै बेर केर कौ संग
वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग।
डॉ. नगेद्र के अनुसार-‘‘माना राग की परिधि में अनूकल-प्रतिकूल, स्व-पर, सत्-असत् सुन्दर-कुरुप, मधुर-कटु और विराट-कोमल सभी के लिये अवकाश रहता है।[9] लेकिन यह भी सुनिश्चित है कि व्यक्तिवादी रागात्मक संस्कार शेषसृष्टि के साथ मानवीय रागात्मक सम्बन्धों को आघात ही पहुंचायेंगे। रागात्मक सम्बन्धों की सार्थकता बिना किसी औचित्य के अगर तय की जायेगी तो रागात्मकता के नाम पर अनुकूल के लिये प्रतिकूल, सत के लिये असत्, सुन्दर के लिये कुरुप, मधुर के लिये कटु, ठीक उसी प्रकार घातक सिद्ध होगा जैसे केर के लिये बेर।
साहित्य में आयी इस घातक स्थिति को ‘व्यापक अनुभूति का एक प्रमाण मानकर डॉ. नगेन्द्र यह कहते हैं- ‘‘साहित्य के मूल्यांकन की कसौटी जो अब तक चली आयी है, वही ठीक है अर्थात् आनंद साहित्य की सृजनक्रिया स्वयं साहित्यकार को आनंद देती है। और उसके व्यक्त रूप का ग्रहण पाठक या श्रोता को आनंद देता है। हमें जो साहित्य जितना ही गहरा और स्थायी आनंद दे सकेगा, उतना ही वह महान होगा, चाहे उसमें किसी सिद्धान्त का साम्यवाद, गांधीवाद, मानववाद, पूंजीवाद, किसी भी वाद का समर्थन हो या विरोध।“
डॉ. नामवर सिंह का कथन ऐसी अधकचरी मान्यताओं के प्रति बड़ा मार्मिक महसूस होता है कि-‘‘जो केवल अनुभूति क्षमता के मिथ्याभिमान के बल पर नयी कविता को समझ लेने तथा समझकर मूल्यनिर्णय का दावा करते हैं, व्यवहार में उनकी अनुभूति की सीमा प्रकट होने के साथ-साथ ही यह तथ्य भी स्पष्ट हो जाता है कि काव्य समीक्षा में हवाई ढंग से सामान्य अनुभूतियों का सहारा लेना भ्रामक है।’’
 डॉ. नगेन्द्र की सत् और असत् में अंतर न कर पाने वाली इसी रागात्मक दृष्टि पर खीजकर अगर डॉ. रामविलास शर्मा यह कहते हैं कि- डॉ. नगेन्द्र की अनुभूति सन्-36 के छायावाद की है, उनके विचार सन्-26 के अधकचरे फ्रायड-भक्तों के हैं ’’, तो सही समय पर एक बेहद सही बात को ही नहीं उद्घाटित करते बल्कि रागात्मक समृद्धि के नाम पर फैलाये गये ‘रागात्मक विपन्नता’ के रहस्य का भी पर्दाफाश करते हैं।
माना रागात्मकता काव्य के आत्मरूप में प्रतिष्ठित वह प्राणतत्व है जिसके द्वारा काव्य रसात्मक हो उठता है, लेकिन इस रस को मिठास, माधुर्य, गहरी आद्रता, अद्भुत मनोहरता, विराटता उद्दात्तता, सौम्यता तो औचित्य से ही प्राप्त होती है। आनंदवर्धन ‘रस भंग’ का कारण कोई और नहीं अनौचित्य को ही मानते हैं । रागात्मकता को उचित वाक्य रचना, अलंकार, वक्रोक्ति, छंदादि जहां प्रगाढ़ता प्रदान करते हैं वहीं उसे औचित्यपूर्ण विचारधाराएं सत्योन्मुखी चेतना से युक्त करती हैं। रागात्मकता का यह सत्योन्मुखी स्वरूप जब काव्य की आत्मा में प्रतिष्ठित होता है तो सुन्दरता के लिये असुन्दरता के आवरणों को हटाता है। पूंजीवाद के खिलाफ मार्क्सवाद बन जाता है, व्यक्तिवादिता के बीच समाजवाद को फैलाता है, गांधी और भगतसिंह की विचारधराओं में अंतर करना सिखलाता है। शोषित को शोषित से, अबला को बलात्कारी-अत्याचारी-व्यभिचारी की विकृत रागात्मकता से मुक्ति दिलाता है। सच्चे प्रेम की स्थापना के लिये वह खाला के व्यावसायी, स्वार्थी, घिनौने चरित्र का विरोध करता है-
‘यह तो घर है प्रेम का खाला का घर नाहिं।’
सत्योन्मुखी रागात्मकता से घनीभूत काव्य का आनंद वास्तविक शिवतत्व और सुन्दरता से आप्लावित होता है। जबकि पूंजीवादी शोषक, अत्याचारी, व्यभिचारी, भोगविलासी विचारधाराओं का पोषण करने वाली अपसंस्कृति का रागरूप अंधेरे की ऐसी सत्ता का पोषक होता है जो समूची मानवता को निगल जाता है। ऐसी रागात्मकता की उपलब्धि भी निश्चित आनंददायी होती है लेकिन यह आनंद ठीक इस प्रकार होता है-
‘कान्हा बनकर जायेंगे फिर पहुंचायेंगे कोठों तक
जाने कितनी राधाओं को इसी तरह वे छल देंगे।’
अतः पाश्चात्य विद्वान होरेस का ‘औचित्य सिद्धान्त’ भले ही उपदेशमूलक हो, लेकिन इसकी सार्थकता और सच्ची आनंदोपलब्धि असंदिग्ध है। होरेस का कहना है कि-‘‘कवि शिव और सुन्दर की प्रतिभा रखता है, वह पाठक को मुग्ध भी कर सकता है और शिक्षा भी दे सकता है। जिसका मस्तिष्क लोलुपता या दृव्य लिप्सा से आक्रान्त या दूषित हो चुका है वह अच्छी कविता नहीं लिख सकता। कविता की जागरूक विवेक शक्ति ही श्रेष्ठ काव्य के सृजन को अनुप्राणित करती है, विवेक शक्ति के बिना चिन्तन सम्भव नहीं। और चिन्तन की प्रखरता औचित्य की पृष्ठभूमि पर ही सम्भव है।’’[10]
 सार यह है कि कोरी तुकबन्दी, या कोरा शब्दाडम्बर जिस प्रकार कविता की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, ठीक उसी प्रकार आत्मरूप में औचित्यपूर्ण सत्योन्मुखी रागात्मक चेतना के समाहित किये बिना सच्ची और वास्तविक कविता प्राप्त नहीं की जा सकती।
सन्दर्भ-
1., 2., 3., व 4. –रस सिद्धांत, पृष्ठ-80-81 व 199
5.- कविता के नये प्रतिमान
6. व 7.-ध्वन्यालोक, पृष्ठ-५२६-२७, ५३०
8.-कविता के नये प्रतिमान, पृष्ठ-62
9.- आस्था के चरण , पृष्ठ-184
10.- Horace-on the art of poetry-58           
--------------------------------------------------------------
रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001

मो.-9634551630